मन की दो अवस्थाएं है, एक दौड़ता हुआ मन, एक ठहरा हुआ मन। दौड़ता हुआ मन, निरंतर ही जहां होता है, वहां नहीं होता। ऐसा समझें कि दौड़ता हुआ मन कहीं भी नहीं होता। दौड़ता हुआ मन सदा ही भविष्य में होता है। आज में नहीं होता, अभी नहीं होता, यहां नहीं होता।
कल, आगे कहीं और, कल्पना में, सपने में, कहीं दूर भविष्य में होता है। और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है वर्तमान का, अभी का, इसी क्षण का। जब मैं कहता हूं इसी क्षण का, इतना कहने में भी वह क्षण वर्तमान का जा चुका। इतनी भी देर हुई, तो हम वर्तमान के क्षण को चूक जाते हैं।
जानने में जितना समय लगता है, उतने में भी वर्तमान जा चुका होता है। एक क्षण हमारे हाथ में है अस्तित्व का, लेकिन मन सदा वासना में, भविष्य में होता है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं। इसलिए दौड़ता हुआ मन कहीं होता नहीं होता। जहां हो सकता है, वहां होता नहीं; और जहां हो ही नहीं सकता, वहां होता है।
वर्तमान में हो सकता था, लेकिन वर्तमान में दौड़ता हुआ मन नहीं होता। आप वर्तमान में दौड़ नहीं सकते; जगह नहीं है, स्पेस नहीं है। दौड़ने के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए। वासना के लिए अनंत विस्तार चाहिए। वर्तमान का क्षण बहुत छोटा है। उस छोटे-से क्षण में आपकी वासना न समा सकेगी। यह जो दौड़ता हुआ मन है, यह दौड़ता ही रहता है। कहीं भी ठहरने का इसे उपाय नहीं है।
जहां ठहर सकता है, वर्तमान में, वहां ठहरता नहीं। और भविष्य तो है नहीं। वहां सिर्फ दौड़ सकता है। ठहरने की वहां कोई सुविधा नहीं है। यह दौड़ता हुआ मन ही हमारी बीमारी है, रोग है। अगर अधार्मिक आदमी की हम कोई परिभाषा करना चाहें, तो वह परिभाषा ऐसी नहीं हो सकती है कि वह आदमी, जो ईश्वर को न मानता हो। क्योंकि ऐसे बहुत- से व्यक्ति हुए हैं, जो ईश्वर को नहीं मानते और धार्मिक हैं।
महावीर हैं, बुद्ध हैं, वे ईश्वर को नहीं मानते हैं, पर परम धार्मिक हैं। उनकी आस्तिकता में रत्तीभर भी संदेह नहीं। और अगर बुद्ध और महावीर की धार्मिकता में संदेह होगा, तो इस पृथ्वी पर फिर कोई भी आदमी धार्मिक नहीं हो सकता। अधार्मिक आदमी उसे नहीं कह सकते हैं, जो ईश्वर को न मानता हो। अधार्मिक आदमी उसे भी नहीं कह सकते, जो वेद को न मानता हो, बाइबिल को न मानता हो, कुरान को न मानता हो।
अधार्मिक आदमी केवल उसे कह सकते हैं कि जिसके पास केवल दौड़ता हुआ मन है, ठहरे हुए मन का जिसे कोई अनुभव नहीं। फिर वह कुछ भी मानता हो- ईश्वर को मानता हो, आत्मा को मानता हो; वेद को, कुरान को, बाइबिल को मानता हो-अगर दौड़ता हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक नहीं है।
और फिर चाहे वह कुछ भी न मानता हो, लेकिन अगर ठहरा हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक है। क्योंकि मन जहां ठहरता है, वहीं तत्क्षण उस परम सत्ता से संबंध जुड़ जाता है। हम उसे क्या नाम देते हैं, यह गौण बात है। कोई उसे ईश्वर कहे, यह उसकी मर्जी। और कोई उसे आत्मा कहे, यह भी उसकी मर्जी।
और कोई भी नाम न देना चाहे, यह भी उसकी मर्जी। और कोई उसके संबंध में चुप रह जाए, यह भी उसकी मर्जी। कोई उसे शून्य कहे, कोई उसे मिट जाना कहे, कोई उसे पूरा हो जाना कहे, यह उसकी मर्जी की बात है। लेकिन जहां मन ठहरा, वहीं आदमी धार्मिक हो जाता है।
साभारः ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली�� �
ओशो
पुस्तक: गीता दर्शन भाग-10
प्रवचन नं 2 से संकलित
ओशो संक्षिप्त जीवन परिचय
ओशो रजनीश का जन्म 11 दिसम्बर 1931 को मध्य प्रदेश में रायसेन जिला के अंतर्गत कुचवाड़ा ग्राम में हुआ। ओशो अपने पिता की ग्यारह संतान में सबसे बड़े थे। 1960 के दशक में वे ‘आचार्य रजनीश’ एवं ‘ओशो भगवान श्री रजनीश’ नाम से जाने गये।
ओशो ने सम्पूर्ण विश्व के रहस्यवादियो, दार्शनिको और धार्मिक विचारधाराओं को नवीन अर्थ दिया। अपने क्रान्तिकारी विचारों से इन्होने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। 19 जनवरी 1990 को ओशो परमात्मा में विलीन हो गये।