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 मोदी सरकार के कानून के विरुद्ध व्हाट्सएप की कोर्ट में याचिका – क्या हैं मुद्दे ? | dharmpath.com

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मोदी सरकार के कानून के विरुद्ध व्हाट्सएप की कोर्ट में याचिका – क्या हैं मुद्दे ?

May 30, 2021 8:22 am by: Category: भारत Comments Off on मोदी सरकार के कानून के विरुद्ध व्हाट्सएप की कोर्ट में याचिका – क्या हैं मुद्दे ? A+ / A-

नई दिल्ली- निजता और डेटा पर नरेंद्र मोदी सरकार और मैसेजिंग प्लेटफॉर्म व्हाट्सएप के बीच की ताज़ा क़ानूनी लड़ाई, पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गई.

क्या है नया क़ानून

25 फरवरी को प्रकाशित नए आईटी क़ानूनों के नियम 4 (2) के तहत, महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थों को- जिनके भारत में 50 लाख से अधिक यूज़र्स हैं- जानकारी की ओरिजिन वाले व्यक्ति का पता लगाना होगा, अगर किन्हीं अपराधों के लिए, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अनुच्छेद 69 के तहत, किसी अदालत या सक्षम प्राधिकारी द्वारा, उसकी मांग की जाए.

इसमें स्पष्ट किया गया है कि ऐसा आदेश, उन मामलों में जारी नहीं किया जाएगा, जहां कम दख़ल वाले साधन उपलब्ध हैं, और किसी भी मध्यस्थ से, संदेश को शुरू करने वाले से संबंधित, किसी इलेक्ट्रॉनिक संदेश या अन्य किसी तरह की जानकारी, साझा करने के लिए नहीं कहा जाएगा.

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के अनुच्छेद 69 के तहत, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, या उसके अधिकृत अधिकारी को, कंप्यूटर के ज़रिए मिली किसी भी सूचना या जानकारी को ‘रोकने, निगरानी करने, या विकोडित करने का’ निर्देश देने का अधिकार देता है, ‘यदि उसे लगता है कि ऐसा करना आवश्यक या फायदेमंद है’.

इसकी अनुमति सिर्फ कुछ विशिष्ट आधारों पर दी गई है, जिनमें देश की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक व्यवस्था से जुड़े किसी संज्ञेय अपराध को अंजाम देने के लिए, किसी को सार्वजनिक रूप से उकसाने से रोकना, या किसी ‘अपराध की जांच’ शामिल हैं.

ऐसे आदेशों को नियमित करने के लिए, इस प्रावधान के तहत इनफॉर्मेशन टेक्नॉलजी (प्रोसीजर एंड सेफगार्ड्स फॉर इंटरसेप्शन, मॉनिटरिंग एंड डीक्रिप्शन ऑफ इनफॉर्मेशन) रूल्स 2009, जारी किए गए हैं.

फेसबुक कंपनी के स्वामित्व वाली व्हाट्सएप ने, मंगलवार को एक याचिका दायर करके, सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021, के नियम 4(2) को चुनौती दी है. इस नियम के तहत बड़े यूज़र बेस वाले सोशल मीडिया मध्यस्थों को (जिन्हें महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थ बताया गया है), ज़रूरत पड़ने पर अपने प्लेटफॉर्म पर दी गई जानकारी के, शुरू करने वाले का पता लगाने का प्रावधान करना होगा. ये विशेष रूप से उन मध्यस्थों के लिए है, जो मैसेजिंग सर्विसेज मुहैया कराते हैं.

जहां सरकार की दलील है कि फेक न्यूज़ को रोकने, तथा सोशल मीडिया के दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिए, ये क़ानून आवश्यक है, वहीं व्हाट्सएप ने कहा कि ‘एन्ड-टु-एन्ड एन्क्रिप्शन’ में बदलाव करने से, सभी यूज़र्स के सामने सरकारी तथा निजी प्लेयर्स के हाथों, उनकी निजता के उल्लंघन का ख़तरा पैदा हो जाएगा, जिससे पत्रकारों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के सामने प्रतिशोध का ख़तरा पैदा हो जाएगा.

व्हाट्सएप फिलहाल जो एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन देती है, वो संचार का एक ऐसा सिस्टम है, जहां केवल संचार कर रहे यूज़र्स ही, संदेशों को पढ़ सकते हैं.

और इसलिए, इस केस का मुख्य मुद्दा निजता का अधिकार है, और ये भारत में इसके इस्तेमाल की, एक अहम आज़माइश साबित हो सकता है.

धारा 69 (1) के अंतर्गत सरकार की ओर से जारी, अधिकार देने वाले सभी आदेश तर्कसंगत और लिखित होने चाहिए. इसके अलावा, हर दो महीने में कम से कम एक बार, इंडियन टेलीग्राफ रूल्स 1951 के तहत गठित, समीक्षा समिति द्वारा इसकी स्क्रूटिनी होनी चाहिए. इस समिति में केंद्र सरकार तथा संबंधित राज्य के सचिव शामिल होते हैं.

लेकिन, ऐसे आदेशों में पारदर्शिता न होने के कारण अक्सर उनकी आलोचना हुई है, ख़ासकर इसलिए कि अनुच्छेद 69 के तहत, इलेक्ट्रॉनिक निगरानी से जुड़े बेनाम आंकड़ों की मांग करने वाले, सूचना के अधिकार (आरटीआई) आवेदनों को, राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता की चिंताओं का हवाला देते हुए, अतीत में ख़ारिज किया गया है.

पारदर्शिता की इस कमी पर बात करते हुए, डिजिटल राइट्स वकील वृंदा भंडारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘सरकार सक्रियता के साथ हर महीने/साल जारी किए जाने वाले, ऐसे आदेशों की कुल संख्या प्रकाशित नहीं करती; न ही वो समीक्षा समिति की बैठकों की संख्या की, कोई जानकारी देती है’.

उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, एमएचए (गृह मंत्रालय) ऐसे कुल बेनामी आंकड़े मांगने वाले आरटीआई आवेदनों को, राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता की चिंताओं का हवाला देते हुए ख़ारिज कर देता है. बल्कि सीआईसी (केंद्रीय सूचना आयुक्त) के सामने उपस्थित अधिकारियों ने तर्क दिया, कि वो इस तरह की जानकारी नहीं रखते’.

भंडारी ने आगे कहा, ‘ये अपारदर्शिता डिक्रिप्शन अथवा इंटरसेप्शन आदेशों के न्यायिक निरीक्षण के अभाव में और बढ़ जाती है, जिससे इंटरसेप्शन प्रक्रिया पर सरकार की जवाबदेही और कम हो जाती है’.

एक ग़ैर-सरकारी संस्था इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (आईएफएफ) की ओर से, सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में भी, इसी तरह की चिंताएं व्यक्त की गईं हैं. जनवरी 2019 में आईएफएफ ने, अनुच्छेद 69 तथा 2009 के नियमों की, संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी, और ये याचिका फिलहाल लंबित है.

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