चंचलता मन का स्वभाव है। मन की कार्यशैली के अंतर्गत हम विचारों के घोड़ों पर सवार होकर कभी अतीत तो कभी भविष्य की ओर यात्रा करते रहते हैं। इस बात की परवाह किए बगैर कि भूतकाल जा चुका है और उसकी पुनरावृत्ति कभी नहीं होगी और भविष्य अभी आया नहीं। अतीत व भविष्य, दोनों पर ही हमारा वश नहींचलता। हां, केवल वर्तमान हमारे हाथ में है और मन कभी वर्तमान में ठहरता ही नहीं। इसका कारण यह है कि वर्तमान में ठहरते ही उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। मन भूत व भविष्य रूपी दो अतियों के मध्य डोलता रहता है। हम दिन भर विचारों के घोड़ों पर सवार होकर यात्रा करते ही हैं और रात को भी ख्वाबों की दुनिया में खो जाते हैं। जो कार्य या इच्छाएं दिन में पूरी नहींकर पाते, उन्हें स्वप्न संसार में विचरण करते हुए पूरा करते हैं।
मन की यह प्रवृत्ति है कि एक इच्छा पूरी नहीं होती कि वह अन्य कामनाओं के जाल में उलझ जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो इच्छाओं व कामनाओं का जाल जितना होता है, हम उतने ही तनावग्रस्त हो जाते हैं। हम मन के जाल को समझे बगैर विभिन्न प्रकार की परेशानियों से ग्रस्त हो जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में ऐसा महसूस होता है कि मनुष्य शब्द की उत्पत्ति मानो मन शब्द से ही हुई हो। तमाम लोगों का आभाहीन व मुरझाया हुआ चेहरा यह साबित करता है कि अधिकांश मनुष्यों ने अपनी लगाम मन के हाथों में सौंप रखी है और वे अपने मन के मालिक नहीं हैं। अब प्रश्न उठता है कि मन, मनुष्य का शत्रु है या मित्र? हमें इस प्रश्न का उत्तर तभी मिल सकता है जब हम पूरी सजगता से मन की कार्यशैली को समझते हुए साक्षी भाव जाग्रत करें। साक्षी भाव तभी संभव है जब हम वर्तमान में ठहरकर स्वयं से लड़ने के बजाय चुपचाप मन की गतिविधियों को देखते रहें। इससे मन की शक्ति क्षीण होगी और निर्विचार की स्थिति उत्पन्न होगी, जो इस बात का प्रमाण होगी कि मन की लगाम अब हमारे हाथों में आ चुकी है और हम मन की दासता से मुक्त हो चुके हैं। इसके बावजूद हमें इस बात के प्रति सचेत रहना होगा कि यह साक्षी भाव आगे भी बरकरार रहे, तभी हम मन का उपयोग सार्थक व सकारात्मक विचारों की उत्पत्ति के लिए कर सकेंगे।