नई दिल्ली: कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) द्वारा न्यायिक नियुक्तियों और सुधारों पर आयोजित सेमिनार में एक पारदर्शी और जवाबदेह कॉलेजियम बनाने के मुद्दे पर बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने इस मुद्दे पर अपने विचार रखे कि कैसे सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों (Post-Retirement benefits) द्वारा न्यायिक स्वतंत्रता के साथ समझौता किया जाता है.
इस सेमिनार का आयोजन बीते 18 फरवरी को किया गया था.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘सेवानिवृत्ति के बाद कोई लाभ नहीं होना चाहिए. ऐसे लाभ देकर हमारे पास एक स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं हो सकती है. यदि सेवानिवृत्ति के कगार पर खड़े जज सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों की चाह में सत्ता के गलियारों में भीड़ लगाते हैं, तो क्या न्याय की उम्मीद की जा सकती है.’
कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के तरीकों का सुझाव देते हुए जस्टिस गुप्ता ने स्वतंत्र जजों के महत्व पर प्रकाश डाला, जिनके पास खुद के लिए खड़े होने और भारत के संविधान की रक्षा करने की ताकत है.
उन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या में विचारों की विविधता के महत्व पर भी जोर दिया. उनके अनुसार, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट प्रगतिशील जजों से भरा होता, तो वह भी एक दुखद दिन होता. इसमें सभी का मिश्रण होना चाहिए.’
उन्होंने ऐसे दो मुद्दों की ओर इशारा किया, जो उनके विचार में कॉलेजियम के कामकाज को मजबूती देने की दिशा में संबोधित किए जाने जरूरी हैं.
पहला, सभी संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए एक सामान्य सेवानिवृत्ति की आयु. दूसरा, सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभों को समाप्त करना.
उन्होंने हाईकोर्ट स्तर पर सही जज नियुक्त किए जाने पर जोर दिया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के ज्यादातर जज हाईकोर्ट से नियुक्त किए जाते हैं.
उन्होंने कहा, ‘अगर आप हाईकोर्ट में सही जज नियुक्त नहीं करते हैं, तो आप सुप्रीम कोर्ट में अच्छे जज कैसे पाएंगे?’
कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि यह बेहद फायदेमंद होगा कि हाईकोर्ट की कॉलेजियम में कम से कम एक जज ऐसा हो जो अपने हाईकोर्ट के स्थानीय जजों को जानता हो.
सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा रखा गया एक अन्य सुझाव यह था कि राज्य द्वारा प्रतिक्रिया दिए जाने का समय निर्धारित हो, जिसके बाद फाइल अपने आप ही जांच एजेंसियों के पास उनकी रिपोर्ट मांगने के लिए आगे बढ़ जाए.
जस्टिस गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट में भेदभाव के मुद्दे को उठाते हुए कहा, ‘जब बात सुप्रीम कोर्ट की आती है, तो सुप्रीम कोर्ट में छोटे उच्च न्यायालयों की उपेक्षा की जाती है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में इन उच्च न्यायालयों से कोई भी नहीं बैठा होता है.’
उन्होंने कहा कि छोटी अदालतों से आने वाली सिफारिशों को नजरअंदाज न किया जाए, यह सुनिश्चित करने का एक तरीका है कि जैसे ही फाइल आएं उन्हें ले लिया जाए. उन्होंने चिंता व्यक्त की कि वरना जजों की वरिष्ठता प्रभावित होगी.
उन्होंने कहा, ‘नामों को हमेशा क्रोनोलॉजिकल तरीके से उठाया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर विभिन्न उच्च न्यायालयों के बीच भेदभाव क्यों होना चाहिए? क्योंकि जो सरकारी कर रही है, कॉलेजियम भी वही कर रहा है.’
जस्टिस गुप्ता ने साथ ही खुलासा किया कि कैसे उम्मीदवार का धर्म सरकार द्वारा उनके नामों पर विचार करने की समय सीमा को प्रभावित करता है. यदि किसी सिफारिश को सरकार द्वारा मंजूरी मिलने में 100 दिन लगते हैं, तो उम्मीदवार के ईसाई होने की स्थिति में 266 दिन और मुस्लिम होने पर 350 से अधिक दिन लगते हैं.
उन्होंने कहा, ‘हालांकि यह सत्यापित नहीं है, लेकिन मुझे पता लगा है कि सरकार द्वारा एक सिफारिश को मंजूरी देने में आमतौर पर 100 दिन लगते हैं. लेकिन उम्मीदवार यदि ईसाई है तो 266 दिन लगते हैं और मुस्लिम होने की स्थिति में 350 से ज्यादा दिन लगते हैं.’
उन्होंने चिंता व्यक्ति की, ‘यदि ये आंकड़े सही हैं और मैं उन्हें सही ही मानता हूं, तो यह एक बहुत ही खतरनाक चलन है. मतलब कि आप यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वे कभी वरिष्ठ न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश न बनें और कभी सुप्रीम कोर्ट न पहुंचें. इसलिए यह पब्लिक डोमेन में होना चाहिए, ताकि हम सवाल पूछ सकें.’
जस्टिस गुप्ता ने जोर देकर कहा कि समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिए और उसका पालन किया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट को जरूरत पड़ने पर ह्विप तोड़ देना चाहिए, अगर सरकार द्वारा वापस सिफारिश किए गए नामों को नहीं स्वीकारा जाता है तो उन्हें स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए. यह कानून का शासन लागू करना होता है, अन्यथा हम अराजकता की ओर बढ़ गए हैं.’