संसार सागर में अंधेरे और उजाले दोनों हैं। यह जरूरी नहीं कि जो आप अपने इन बाहर खुले हुए नेत्रों से देख रहे हैं, जो दृश्य साफ-साफ दिखाई दे रहा है वह सत्य का ही उजाला हो।
उस चमकते हुए उजाले की परत के पीछे छिपा हुआ घना अंधकार भी हो सकता है। इस मानव देह में एक तीसरा ज्ञान चक्षु भी होता है, जिसके द्वारा अंधेरों और उजालों का अन्तर समझ आता है।
जिसके द्वारा संसार नहीं संसार को बनाने वाला, लाखों-करोड़ों प्रकाशित सूर्य भी जिसकी बराबरी नहीं कर सकते, ऐसा जो ज्योति स्वरूप है, जो कण-कण में बसा हुआ है, सर्वव्यापक है, वह महान करतार दिखाई देता है। लेकिन वह अन्तर्चक्षु तभी खुलता है जब गुरुकृपा होती है।
वैसे तो गुरु सबके ऊपर ही अनवरत अपनी कृपा बरसाते हैं, लेकिन जो गुरु कृपा पाने के योग्य होता है, गुरु महिमा के महत्व को भलीभांति समझता है, उसका ही यह दिव्य नेत्र प्रभावी होता है। क्योंकि इस दिव्य चक्षु के खुलने से शिष्य के जीवन में प्रभात का उदय होता है।
सद्गुरु शिष्य को बाहर से नहीं अन्दर से जोड़ते हैं। क्योंकि अन्दर ही वह उजाला मौजूद है, जिसमें जीवन की चमक है, जीवन की गरिमा है, जिसके लिए हमें यह अनमोल चोला प्राप्त हुआ है। अन्दर के प्रकाश से ही बाहर की वास्तविकता समझ आती है।
जगत के रिश्ते-नातों की सच्चाई का पता तभी चलता है, जब सद्गुरु के ज्ञान का अमृत मिल जाए। नीर और क्षीर का भेद तभी पता चलता है जब गुरुकृपा से अन्तस जाग जाए। गुरुशरण प्राप्त किए बिना इंसान बहुत सारी चोटों का शिकार हो जाता है। जाने-अनजाने में गुनाहगार बन जाता है।
दर-दर की ठोकरें खाता है, वैसे ठोकरें जीवन में सबक सिखाने के लिए लगती हैं, लेकिन गुरु कृपा के बिना इंसान बार-बार ठोकर खाता है, बार-बार गुनाह करता है, बार-बार धोखे का शिकार होता है। पर जब गुरुकृपा से ज्ञान चक्षु खुल जाता है, तब शिष्य राह में ठोकर बनकर पड़े हुए पत्थर को भी अपनी मंजिल की सीढ़ी बना लेता है।
क्योंकि जो ईश्वरीय ज्ञानामृत कोष से ध्वल प्रकाश की किरणें लेकर अपने शिष्यों के बीच स्नेह पूर्वक बांटता है, वही सद्गुरु होता है। दुःख और मुसीबतों के अंधेरों में जो सन्मार्ग दिखाता है, वही सद्गुरु होता है। जो संतापों से तपते हुए मनों में शान्ति और शीतलता के मेघ बनकर बरसता है, वही सद्गुरु है। जो सुगन्धित बयार बनकर शिष्य समुदाय के मन को महकाता है, हर्षाता है, सरसाता है वही सद्गुरु है।
सद्गुरु शिष्य के अन्दर कलाएं विकसित करता है। उसकी सुप्त शक्तियों को जागृत करता है। गुरु की कोशिश यही रहती है कि शिष्य पूर्णिमा के चांद की तरह चमकता रहे। जैसे-जैसे चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे शिष्य का भी उत्साह बढ़ता रहे, जोश बढ़ता रहे, उन्नति के शिखर पर वह अनवरत चढ़ता रहे, यह शुभ चिन्तन शिष्य के विषय में एक सद्गुरु का ही होता है।
लेकिन चन्द्रमा पूर्णिमा पर सम्पूर्णता प्राप्त करके कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से घटना प्रारम्भ हो जाता है। अमावस के दिन दिखाई ही नहीं देता, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पुनः पूर्णता की यात्रा शुरू हो जाती है, पूर्णिमा को चन्द्रमा फिर पूर्ण हो जाता है।
किन्तु यहां सद्गुरु के हृदय की ममता का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि वे यह तो चाहते हैं कि शिष्य चांद बनकर चमके। लेकिन उसकी कभी अवनति न हो, वह कभी घट-घटकर न बढ़े, थम-थम कर न चले, मतलब थोड़ी-सी चमक से उसके आगे अहंकार का अंधेरा न छा जाए, उसकी उन्नति में कहीं अवरोध न आ जाए, वह निरंतर उन्नति को प्राप्त करता रहे, करता रहे, करता रहे।