मानव जीवन आशाओं और आकांक्षाओं से सर्वदा भरपूर रहता है। किन्तु समस्त इच्छाएं किसी की भी पूर्ण नहीं होती। मनुष्य की जितनी इच्छाएं बढ़ती हैं उतनी उसकी व्याकुलता, बेचैनी और अशांति बढ़ती जाती है।
वैसे मानव मन के एक कोने में शान्ति की भी इच्छा रहती है, सुख की भी कामना रहती है, लेकिन शान्ति की इच्छा रखने से शान्ति नहीं मिलती, बल्कि इच्छाओं के शान्त होने से शान्ति मिलती है। सुख की कामना करने से सुख नहीं मिलता, उसके लिए उसी तरह का प्रयास करने से जीवन में सफलता मिलती है।
मनुष्य जितनी इच्छाओं के भंवर में भटकेगा उतनी ही उसकी व्याकुलता बढ़ती जाएगी। व्याकुलता से लोभ उत्पन्न हो जाएगा, लोभ से तृष्णा फलित होगी फिर इंसान छल-कपट की दुनिया में प्रवेश कर जाएगा और अन्त में वह सिर्फ अन्तहीन यात्रा का मुसाफिर बनकर ही रह जाएगा। जिसकी न कोई मंजिल होगी और न ही कोई उद्देश्य होगा। न ही उसका कोई लक्ष्य होगा और न ही उसकी कोई निश्चित दिशा होगी।
अन्तिम समय में उसे पता चलेगा कि मैंने अपना अनमोल जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में लगा दिया। मुझसे कहां कैसे और क्या-क्या गलतियां हुई हैं। इंसान उस समय रुदन करता है, अपनी किस्मत को कोसता है, अपना माथा पीटता है, कोई उससे उसकी आपबीती पूछे तो वह कुछ किसी को बताता नहीं, अगर कोई उसकी दुःख भरी कहानी सुनना चाहे तो किसी को वह सुनाता नहीं। उस समय उसके वक्त और हालात ऐसे हो जाते हैं कि वह न चाहते हुए भी दया का पात्र मात्र बनकर रह जाता है।
इसलिए समय रहते इंसान को चेतना चाहिए। जीवन में हर कोई कहीं न कहीं अभाव जरूर महसूस करता है। किंतु जो इंसान परमात्मा के प्रभाव को महसूस करता है, उसे हर वक्त अपने अंग-संग महसूस करता है, वह कभी किसी भी तरह की परिस्थितियों के दबाव में नहीं आता, बल्कि परिस्थितियां ही उसकी दास बनकर रह जाती हैं।