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 उत्तर प्रदेश में कराहती शिक्षा | dharmpath.com

Saturday , 19 April 2025

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उत्तर प्रदेश में कराहती शिक्षा

akhilesh-300x204हाल ही में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने शिक्षा के गिरते स्तर और अराजक होते शैक्षिक माहौल से निपटने के लिए राज्य भर के विश्व विद्यालयों के कुलपतियों के साथ गहन चिंतन-मनन किया। राज्यपाल की चिंता इस संदर्भ से जुड़ी थी कि उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालय गुणवत्तापरक शिक्षा देने में विफल हो रहे हैं, साथ ही अनुशासन बना पाने में भी नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। सच्चाई यह है कि प्रदेश में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा भी गर्त में जाती ही दिख रही है। और इसके लिए कहीं न कहीं यूपी की सरकार ही ज़िम्मेदार है। देश के अन्य राज्यों में शिक्षा का अधिकार क़ानून तक़रीबन लागू हो गया है लेकिन यूपी की सरकार शिक्षा अधिकार क़ानून को अमली जामा पहनाने के लिए प्रस्तावित आदर्श नियमावली ही मंजूर नहीं कर पाई है। ग़ौरतलब है कि शिक्षा अधिकार क़ानून इसके तहत 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलनी है. लेकिन अभी भी यूपी और केंद्र सरकार के बीच इस पर खर्च होने वाली धनराशि को लेकर ही किचकिच मची है। यूपी में शिक्षा अधिकार क़ानून लागू करने के लिए 18000 करोड़ रुपए की ज़रूरत होगी। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा यह योजना बनाई गई थी कि 55 फीसदी हिस्सा उसका होगा और 45 फीसदी हिस्सा राज्य सरकारों को खर्च करना होगा। लेकिन यूपी सरकार इतनी धनराशि खर्च करने को तैयार नहीं दिखी. नतीजतन केंद्र सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा कि वह शिक्षा अधिकार क़ानून लागू करने के लिए 55 फीसदी के बजाए 65 फीसदी हिस्सा खर्च करेगी और राज्य सरकारों को अब 35 फीसदी ही हिस्सा खर्च करना होगा। लेकिन इसके बावजूद यूपी की माया सरकार इस दिशा में सार्थक पहल नहीं कर रही है।

आजकल केंद्र सरकार की तरह यूपी सरकार भी शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर नया हथकंडा यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को आजमाना चाह रही है। सच तो यह है कि सरकार की यह मंशा शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से दूर ही करेगा। सरकार को इस पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। यूपी सरकार को चाहिए कि विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या तो बढ़ाए लेकिन उन्हें आधुनिक संसाधनों से लैस भी करे।

वह केंद्र सरकार से यह आश्वासन लेना चाहती है कि सन 2014 के बाद भी वह अपनी 65 फीसदी की हिस्सेदारी बनाए रखेगी कि नहीं। हर रोज माया सरकार के अफसरान केंद्र सरकार से पत्र व्यवहार करने में ही जुटे पड़े हैं। बजाए इसके कि कैसे शिक्षा अधिकार क़ानून को अमल में लाया जाए। उत्तर प्रदेश में शिक्षा अधिकार क़ानून लागू करने के लिए जो खाका तैयार किया गया है उसके तहत लगभग 4596 नए विद्यालयों की ज़रूरत पड़ेगी और 2349 नए अपर प्राथमिक विद्यालयों की भी दरकार होगी। इसके लिए यूपी सरकार को तक़रीबन 3800 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। तीन लाख पच्चीस हज़ार नए अध्यापकों की भर्ती करनी होगी। अपर प्राथमिक विद्यालयों के लिए 67000 नियमित और 44000 पार्टटाइम शिक्षकों की ज़रूरत पड़ेगी। तब जाकर अनिवार्य शिक्षा का ढांचा खड़ा होगा. लेकिन इस दिशा में सरकार कोई सार्थक पहल करती नहीं दिख रही है. प्राथमिक शिक्षा की ही तरह माध्यमिक शिक्षा की भी स्थिति बदतर ही बनी हुई है. यूपी में सरकारी और अनुदानित विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के लिए तकरीबन दो लाख से अधिक अध्यापकों की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन आज अध्यापकों की भारी कमी है। यूपी में अनुदानित विद्यालयों की संख्या सर्वाधिक है। इन्हीं के भरोसे माध्यमिक शिक्षा का वजूद भी है, अनुदानित विद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति के लिए माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड का गठन किया गया है। लेकिन एक दशक का इतिहास यही बताता है कि शिक्षा सेवा चयन बोर्ड अपने उद्देश्यों में अस़फल ही साबित रहा है. कारण यह है कि इसके सदस्यों के चयन की प्रक्रिया पूरी तरह से राजनीतिक हो गयी है. सत्ता में बैठे हुए लोग अपने प्रियजनों को ही वहां नियुक्त करना उचित समझते हैं। दूसरी अहम बात यह कि अध्यापकों की नियक्ति में इतनी लेटलतीफी है कि जितने अध्यापकों की नियक्ति होती है उससे कहीं अधिक अध्यापक सेवानिवृत्त हो जाते हैं. ऐसे में अध्यापकों की किल्लत बराबर बनी रहती है। माध्यमिक सेवा चयन बोर्ड में यदाकदा भ्रष्टाचार की भी बातें सुनने को मिलती रही है। अगर माध्यमिक विद्यालयों में पठन-पाठन पर गौर फरमाया जाए तो सरकार की लचर नीतियों के कारण स्थिति बिगड़ती ही जा रही है।

सरकारी और अर्धसरकारी विद्यालयों में छात्रों की संख्या लगातार कम होती जा रही है जो यह बताने के लिए का़फी है कि शैक्षिक गुणवत्ता को लेकर सरकार की चिंता कितनी है। पिछले दिनों यह बात भी सुनने को मिला था कि शिक्षा विभाग संभाल रहे मंत्रीगण विद्यालयों को मान्यता देने के नाम पर करोड़ों की वसूली कर रहे हैं। यह स्थिति भयंकर है. जहां केंद्र की सरकार उच्च शिक्षा की बेहतरी के लिए नित नए प्रयोग में जुटी पड़ी है, वहीं यूपी में उच्च शिक्षा का मसला अराजकता की भेंट चढ़ता जा रहा है। उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर यूपी सरकार का एक सूत्री कार्यक्रम महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाना मात्र रह गया है. सही अर्थो में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि गुणवत्ता पैदा करने के लिए महाविद्यालयों को स्वायत्तशासी और ज़रूरी संसाधनों से लैस करना भी ज़रूरी होता है, लेकिन सरकार का ध्यान इस तरफ नहीं है।

आज यूपी में महाविद्यालयों की संख्या हज़ारों में पहुंच गयी है, लेकिन इनकी स्थिति पर गौर फरमाया जाए तो ये कहीं से भी महाविद्यालय होने का मानक पूरा नहीं करते। इन महाविद्यालयों के पास न तो ज़रूरत भर ज़मीन है और न ही भवन, हज़ारों की संख्या में इन महाविद्यालयों को सीमित विश्वविद्यालयों से जोड़ दिया गया है। संबद्ध महाविद्यालयों की परीक्षा कराना और उसका समय से परिणाम तैयार करना आज विश्व विद्यालयों के लिए चुनौती भरा कार्य हो गया है। पिछले दिनों देखा गया कि यूपी में बीएड परीक्षा को लेकर कितनी अफरा-तफरी मची रही। एक बार तो पेपर लीक हो जाने से परीक्षा की तिथि में ही परिवर्तन करना पड़ा. अब यूपी सरकार बीएड परीक्षा कराने की जिम्मेदारी किसी एक विश्व विद्यालय को देने के बजाए अलग-अलग विश्वविद्यालयों के कंधे पर डालेगी। लेकिन सवाल परीक्षा कराने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसकी शुचिता को लेकर भी है। विश्वविद्यालयों में रोज नए घोटाले सुनने को मिल रहे हैं। आज आलम यह है कि अभी तक बीएड नामांकन की प्रक्रिया तक पूरी नहीं हो पायी है। ऐसी स्थिति में सत्र को कैसे नियमित किया जा सकता है। अगर यूपी सरकार द्वारा सार्थक शिक्षा नीति बनाकर महा विद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान की जाए तो का़फी हद तक इस जटिल समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। लेकिन यूपी सरकार महा विद्यालयों को स्वायतता देने के बजाय कुकुरमत्ते की तरह महा विद्यालय खोलने पर ही उतारू है। आज स्थिति यह है कि यूपी में छोटे-छोटे महा विद्यालय जिनके पास न तो भवन हैं और न ही उचित संसाधन वे भी सरकार की कृपा से इंजीनियरिंग और मेडिकल की कक्षाएं चला रहे हैं। यह उच्च शिक्षा के साथ एक भद्दा मजाक नहीं तो और क्या है. कुकुरमत्ते की तरह उग आये धन के बल पर मान्यता प्राप्त इन महा विद्यालयों में न तो प्रशिक्षित अध्यापक हैं और न ही प्रायोगिक कार्यों के लिए ज़रूरी संसाधन ही उपलब्ध हैं। एक आंकड़े के अनुसार आज यूपी में 85 प्रतिशत इंजीनियरिंग और 40 प्रतिशत मेडिकल कॉलेजों पर सरकार का नियंत्रण नहीं के बराबर है। यह सब निजी क्षेत्र के हैं। शिक्षा के निजीकरण का ही आलम है कि गुणवत्तापरक शिक्षा अब दूर की कौड़ी बनती जा रही है। अगर सरसरी निगाह से देखा जाए तो मेडिकल और इंजीनियरिंग से संबंधित अधिकांश महाविद्यालय उन राजनीतिकों के हैं जिनकी सत्ता में गहरी पैठ है। इसकी बानगी यूपी की राजधानी लखनऊ में ही देखी जा सकती है। एक से एक धन्नासेठों द्वारा इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेज चलाए जा रहे हैं, ये न तो ज़रूरी मापदंडों को पूरा कर रहे हैं और न ही क़ानून का डंडा ही इनके ऊपर असर दिखा पाता है. ये महाविद्यालय अपने राजनीतिक रसूख का फायदा उठाकर स़िर्फ डिग्रियां ही बांटने में लगे हैं और उसके एवज में मोटी धनराशि वसूल रहे हैं. यही कारण है कि आज टेक्निकल शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या यूपी में बढ़ती ही जा रही है। एक आंकड़े के अनुसार अकेले कानपुर में ही इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल किए पांच लाख बेरोजगारों की फौज मौजूद है। अगर वाकई यूपी सरकार उच्च शिक्षा के प्रति गंभीर है तो उसे कुछ कड़वे फैसले लेने होंगे। मसलन सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकना होगा. आजकल केंद्र सरकार की तरह यूपी सरकार भी शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर नया हथकंडा यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को आजमाना चाह रही है. सच तो यह है कि सरकार की यह मंशा शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से दूर ही करेगा. सरकार को इस पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। यूपी सरकार को चाहिए कि विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या तो बढ़ाए लेकिन उन्हें आधुनिक संसाधनों से लैस भी करे। आम तौर पर देखा जाता है कि निजी क्षेत्र के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रशिक्षित अध्यापक नहीं होते हैं। सिर्फ खानापूर्ति ही की जाती है, और सरकार भी अपनी आंखें मुंदे रहती है। वह दिन दूर नहीं जब यूपी में शिक्षा अपनी बदतर स्थिति में होगी।

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