बचपन में मुंशी प्रेमचंद जी की लघु कहानी “ईदगाह” पढ़ मन इस त्यौहार के प्रति उल्लास से परिपूर्ण हो जाता था.ईद की सेवईयो की तरह जीवन में मिठास घुल जाती थी.मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती भी इसी माह 31 जुलाई को आती है और इस वर्ष ईद भी इसी माह पड रही है,लेकिन उस “हामिद” की ईद की तरह नहीं ,उस चिमटे की तरह नहीं जो हामिद अपनी दादी के लिए लाया था.
दादी की उंगलिया ना जलें रोटियां बनाते वक्त इसलिए वह नन्हा बालक ईद के मेले में अपने लिए मिठाई या खिलोने की जगह लोहे का चिमटा लाता है ताकि उसकी दादी अमीना की उँगलियाँ ना जलें.बाजार से चिमटा खरीद कर वह उसे कंधे पर रख इस तरह घर की ओर चलता है जैसे काँधे पर बन्दूक रख चल रहा हो.हम इस कथानक को पढ़ कर इसमें जीवन जीने लगते थे.कल्पना के घोड़े ईद के त्योहारी मेले में कुलांचे भरने लगते थे लेकिन ,
आज ईद पर मन रो रहा है ,ईदगाह कहानी झूठी कल्पना लग रही है .सिलसिलेवार वीभत्स आतंकी घटनाओं ने उस ईद को जिसका बचपन इन्तजार करता था मानने से इनकार कर दिया है.पाशविकता के अट्टहास की इस ईद के मौके पर इबादत का मन तो करता है लेकिन उस सतरंगी मेले में जाने का नहीं.प्रसन्न मन से गले लगाते हुए भी वे लोथड़े आँखों के सामने आते हैं जो भीषण विस्फोटों में उड़े हुए दिखे.
क्या मानवता इस “ईद” पर संकल्प लेगी आतंकवाद रहित विश्व निर्माण का ? उस “हामिद” के जीवन में खुशहाली भरने का जो अपनी दादी के लिए खरीदे उस चिमटे को भी इतने गर्व से ले कर चलता है जैसे कंधे पर सैनिक बन्दूक धर चल रहा हो.
जीवन उस “हामिद” की कहानी में है,जीवन उस अमीना दादी की झुर्रियों में हैं जो हामिद को देख खिल जाती हैं.बांग्लादेश,मक्का,तुर्की,पाकिस्तान और अन्य स्थानों पर हुए हमलों में नहीं जिसमें मानवता तार-तार कर दी गयी.
आज मुंशी जी की वह कहानी”ईदगाह” भी इस दर्द के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ आशा है किसी जालिम का दिल इसे पढ़ उस हैवानियत से बाहर इंसानियत की ओर आ जाएगा और अमन की मीठी सेवईया मानवता को पेश करेगा.
कहानी: ईदगाद
रमज़ान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आई है. कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है.
वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है.
आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है.
गांव में कितनी हलचल है. ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं.
किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर से सुई-तागा लाने को दौड़ा जा रहा है.
किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है.
जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें. ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी.
तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना,भेंट करना. दोपहर के पहले लौटना असंभव है. लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं. किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है. रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे. इनके लिए तो ईद है.
रोज ईद का नाम रटते थे. आज वह आ गई. अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते. इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन. सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँगे.
वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं! उन्हें क्या खबर कि चौधरी आज आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए. उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है. बार-बार जेब से अपना ख़जाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं.
महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह. उसके पास बारह पैसे हैं. मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं. इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाएँगे-खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या!
और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है हामिद. वह चार-पाँच साल का ग़रीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई. किसी को पता न चला, क्या बीमारी है. कहती भी तो कौन सुनने वाला था. दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई.
अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है. उसके अब्बाजान रुपये कमाने गए हैं. बहुत-सी थैलियाँ लेकर आएँगे. अम्मीजान अल्लाहमियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई है, इसलिए हामिद प्रसन्न है. आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं.
हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है. जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा. तब देखेगा महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे.
अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है. आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं. आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती? इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है. किसने बुलाया था इस निगौड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा. विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आए, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी.
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊँगा. बिलकुल न डरना.
गांव से मेला चला. और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था. कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते. फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते. ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं. वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया. सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं. पक्की चारदीवारी बनी हुई है. पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं. कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ उठाकर आम पर निशाना लगाता है. माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है. लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं. खूब हँस रहे हैं. माली को कैसे उल्लू बनाया है!
अब बस्ती घनी होने लगी थी. ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं. एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए, कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग.
ग्रामीणों का वह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था. बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं. जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते. और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते. हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा.
सहसा ईदगाह नजर आया. ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है. नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है. नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं. आगे जगह नहीं हैं. यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता. इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं. इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए.
कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं. एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं. कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे. कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं. मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं.
नमाज खत्म हो गई है, लोग आपस में गले मिल रहे हैं. तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है. ग्रामीणों का वह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है. यह देखो, हिंडोला है. एक पैसा देकर जाओ. कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए. चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों से लटके हुए हैं. एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो. महमूद और मोहसिन, नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं. हामिद दूर खड़ा है. तीन ही पैसे तो उसके पास हैं. अपने कोष का एक तिहाई, जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नदीं दे सकता.
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं. किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा. मज़े से खा रहे हैं. हामिद बिरादरी से पृथक है. अभागे के पास तीन पैसे है. क्या नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी और देखता है.
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीज़ों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की. लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था. वह सब आगे बढ़ जाते हैं.
हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है. कई चिमटे रखे हुए थे. उसे ख़याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है. तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है. अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी. घर में एक काम की चीज हो जाएगी. खिलौने से क्या फ़ायदा. व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं. उसने दुकानदार से पूछा, यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा, ‘यह तुम्हारे काम का नहीं है जी’
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छः पैसे लगेंगे?’
हामिद का दिल बैठ गया. ‘ठीक-ठीक बताओ.’
‘ठीक-ठाक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं तो चलते बनो’
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा-तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने. लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दीं. बुलाकर चिमटा दे दिया. हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया.
ग्यारह बजे सारे गाँव में हलचल मच गई. मेले वाले आ गए. मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जो उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ गए और सुरलोक सिधारे. इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई. दोनों खूब रोए. उनकी अम्मां शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चांटे और लगाए.
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए. अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी. सहजा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी.
‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है.’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिए.’
अमीना ने छाती पीट ली. यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया, न पिया. लाया क्या, चिमटा. सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा-तुम्हारी ऊँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया.
बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है. यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ. बच्चे में कितना त्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौना लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा! इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही. अमीना का मन गदगद हो गया.
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई. हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र. बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था. बूढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गईं. वह रोने लगी. दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी. हामिद इसका रहस्य क्या समझता.
अनिल कुमार सिंह
धर्मपथ