एट्रोसिटी एक्ट को लेकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की घोषणा के बाद लगता है कि हिलते तख्त का कंपन अब महसूस किया जाने लगा है। उम्मीद जगी है कि केंद्र सरकार भी इस कथित एक्ट के सख्त प्रावधानों पर फिर विमर्श कर सकती है। मुख्यमंत्री की आश्वस्ति फिलहाल गरम तवे पर ठंडे छीटे से ज्यादा कुछ नहीं है।
देशभर में क्रियाओं-प्रतिक्रयाओं का दौर चल रहा है। एक दो स्वाभाविक सवाल भी बेताल की भाँति उठ खड़े हुए हैं। पहला- क्या मुख्यमंत्री की घोषणा प्रभावी होगी। क्योंकि संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से संशोधन विधेयक पास होने के बाद उसमें राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो चुके हैं और यह कानून के रूप में बदल चुका है। ऐसी स्थिति में क्या किसी प्रांत सरकार को यह अधिकार है कि कानून बदल सके-? दूसरा- मुख्यमंत्री ने जो घोषणा की है यही तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रूलिंग दी थी जिसे पलटने के लिए संसद में संशोधन लाया गया। तो फिर घोषणा का अर्थ क्या रह जाता है?
बातें दोनों पक्ष से उठने लगी हैं। सवर्ण पक्ष इसी आधार को लेकर कह रहा है कि यह महज कोरी घोषणा है, इसका कोई विधिक औचित्य नहीं। दूसरा यानी अजाजजा के प्रतिनिधि इसे विश्वासघात की मानते हैं, उनकी ओर से चुनौती भरे स्वर उभरने लगे हैं कि संसद ने जो कानून बनाया है क्या उसे उसकी निचली सत्ता बदल सकती है..? वे ऐसी किसी कोशिश का विरोध करने की बात करने लगे हैं।
आसन्न चुनाव के मद्दे नजर एक-एक बात का महत्व है। लेकिन इस पर कांग्रेस का मुदित होना महज खयाली पुलाव पकाना ही है कि सवर्ण भाजपा से कटते जा रहे हैं। उन्हें जान लेना चाहिए कि एट्रोसिटी एक्ट के मसले पर काँग्रेस ही गुड़ का बाप कोल्हू है। चूँकि वह सत्ता में नहीं है इसलिए उसके खिलाफ गुस्से का ज्यादा असर नहीं दिख रहा। अभी हाल ही में एक प्रेसवार्ता में प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ ने काँग्रेस का पक्ष साफ करते हुए कहा कि पार्टी सख्त एट्रोसिटी एक्ट की पैरोकार है, इस बात को सबने नोट किया है।
एट्रोसिटी एक्ट में गिरफ्तारी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित की बेंच की रूलिंग के बाद सबसे पहले कांग्रेस ने ही आसमान सिर पर उठाया था। राजीव गांधी का हवाला देते हुए लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे व अन्य नेताओं ने रो-रो कर यह दुहाई दी कि 1989 में यह कानून जिस पवित्र मंशा से बनाया गया था उसका खून हो गया। खड़गे ने बहस को दलितिस्तान तक उतार दिया। काँग्रेस ने सुप्रीमकोर्ट लिहाज नहीं किया जबकि अंतिम फैसला आना अभी भी बाकी है।
कांग्रेस के समवेत विलाप से अजाजजा वोटों को लेकर भाजपा इतनी डर गई कि रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदितराज जैसे घांघ उस्तादों को सक्रिय कर दिया। मुझे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वह घोषणा अभी भी याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि यह ऐट्रोसिटी एक्ट बिना पाई, मात्रा, कामा बदले वैसे ही लागू रहेगा जैसे कि था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग को अप्रभावी करने की गरज से संशोधन लाया गया जिसमें रिपोर्ट लिखाते ही गिरफ्तारी की बात है।
कमाल की बात यह कि सुप्रीमकोर्ट ने अपनी रूलिंग दंड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) को लेकर दी थी न कि एट्रोसिटी एक्ट को लेकर। कोर्ट ने यह बार बार स्पष्ट किया कि वह एससीएसटी एक्ट की ओर देख तक नहीं रही। जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस एके गोयल की बेंच में अंतरिम रोक लगाने को लेकर जो बहस हुई थी उसे एक बार आप भी पढ़िए-
एजी वेणुगोपाल(एटार्नी जनरल)- देश भर के दलित नाराज हैं, 10 लोग मर चुके हैं, फैसले में अंतरिम रोक लगाएं।
जस्टिस गोयल- हम एससी, एसटी एक्ट के खिलाफ नहीं हैं। पर ये देखना होगा कि बेगुनाह को सजा न मिले। सरकार क्यों चाहती है कि बिना जाँच के लोग गिरफ्तार किए जाएं। अगर सरकारी कर्मचारी पर कोई आरोप लगाएगा तो वह कैसे काम करेगा? हमने एससी,एसटी एक्ट नहीं बदला, सीआरपीसी की व्याख्या की है।
एजी वेणुगोपाल- यह एक्ट पहले से ही सशक्त है इसमें बदलाव की जरूरत नहीं।
जस्टिस गोयल- सबसे बड़ी खामी यह है कि एक्ट में अग्रिम जमानत का विकल्प नहीं। अगर किसी को जेल भेजते हैं और बाद में वह निर्दोष साबित होता है तो उसके नुकसान की भरपाई नहीं कर सकते। आपके आँकड़े बताते हैं कि कानून का अक्सर दुरुपयोग होता है।
एजी वेणुगोपाल- कई मामलों में दुरुपयोग का पता चला है मगर उस आधार पर कानून में बदलाव जरूरी नहीं।
जस्टिस ललित- क्या किसी निर्दोष को उसका पक्ष सुने बिना जेल भेजना उचित है? अगर किसी सरकारी कर्मचारी के साथ ऐसा होता है तो वह कैसे काम करेगा? कानून सजा की बात करता है गिरफ्तारी की नहीं।
जस्टिस गोयल- यह अकेला ऐसा कानून है जिसमें किसी को कानूनी उपचार नहीं मिलता। केस दर्ज होते ही व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार कर जेल भेज देते हैं। झूठे आरोप लगाकर किसी की स्वतंत्रता छीनने का हक किसी को नहीं दे सकते।
एमिकस क्यूरी अमरेंद्र शरण- सीआरपीसी भी कहती है कि गिरफ्तारी से पहले जाँच करनी चाहिए। प्रावधान भले ही एक्ट के हों, लेकिन प्रक्रिया सीआरपीसी की ही होती है। कोर्ट की गाइडलाइंस से एससी-एसटी एक्ट के केस की जांच, ट्रायल और अन्य न्यायिक प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
जस्टिस गोयल- आरोपी को गिरफ्तार करने की शक्ति सीआरपीसी देती है, एससी-एसटी एक्ट नहीं। हमने सिर्फ प्रक्रियात्मक कानून की व्याख्या की है, एससीएसटी एक्ट की नहीं।
इससे स्पष्ट है कि सुप्रीमकोर्ट ने एट्रोसिटी एक्ट के खिलाफ रूलिंग नहीं दी थी। यदि सीआरपीसी की व्याख्या एक्ट के खिलाफ जा रही थी तो इसे ही बदलना था क्योंकि कि चाहे चोरी का मसला हो या कतल का, पुलिस और अदालत सीआरपीसी के अनुसार चलेगी। संसद ने विवादित कानून में क्या बदलाव किए इसका नोटीफिकेशन तो देखने को नहीं मिला, अलबत्ता मीडिया और अन्य प्रचार तंत्र के जरिऐ जरूर जाना कि एक्ट में यह प्रावधान जोड़ दिया गया है कि अब पीडित व्यक्ति की रिपोर्ट लिखे जाने के साथ ही गिरफ्तारी होगी, जाँच बाद में और सेशन कोर्ट से अग्रिम जमानत का सवाल ही नहीं उठता।
पर घूमफिर कर मसला वहीं आ जाता है जहां सुप्रीमकोर्ट था। सीआरपीसी के प्रावधानों के सवाल पर जैसा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने हाल ही में एट्रोसिटी पर एक फैसला दिया। आइए उससे संदर्भित खबर पढ़ते हैं-
“लखनऊ- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मंगलवार(11सितंबर) को पुलिस से कहा कि वह उच्चतम न्यायालय के 2014 के एक आदेश द्वारा समर्थित सीआरपीसी के प्रावधानों का पालन किए बगैर एक SC/ST महिला और उसकी बेटी पर हमले के आरोपी चार लोगों को गिरफ्तार नहीं कर सकती। यह मामला आईपीसी के साथ-साथ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निरोधक) कानून के तहत दर्ज हुआ था, लेकिन न्यायालय ने पुलिस को तत्काल ‘‘नियमित’’ (रूटीन) गिरफ्तारी करने से रोक दिया। उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में न्यायमूर्ति अजय लांबा और न्यायमूर्ति संजय हरकौली की खंडपीठ ने यह आदेश पारित किया।
सीआरपीसी की धारा 41 और 41-ए कहती है कि सात साल तक की जेल की सजा का सामना कर रहे किसी आरोपी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक पुलिस रिकॉर्ड में उसकी गिरफ्तारी के पर्याप्त कारणों को स्पष्ट नहीं किया जाता।”
इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच के फैसले के मुताबिक स्थिति फिर वहीं पहुंच गई जो कथित एट्रोसिटी एक्ट के संसद में संशोधन के पहले थी। यहां असल मुद्दा यह है कि न केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें साफ साफ बताना चाहतीं कि इस कानून को लेकर कितना सच है और कितना भ्रम है। सभी वोट की नजाकत को भाँप रहे हैं और इधर समूचा समाज सुलग रहा है। सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न होने के साथ जातीय युद्ध की भूमिका तैयार हो रही है। सच और झूठ गड्डमड्ड हो चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों का दायित्व बनता है कि वे एट्रोसिटी एक्ट और उससे जुड़े प्रत्येक पहलुओं पर तत्काल स्वेतपत्र जारी करें, वरना जो अनर्थ होगा उसे सदियों तक पीढियां सरकार और राजनीतिक दलों को माफ नहीं करेंगी।
पुनश्चः
एक्सपर्ट कमेंट्स
-केंद्र सरकार द्वारा sc st act में लागू किए गए संशोधन से भिन्न कार्यवाही करने के लिए, म प्र की राज्य सरकार को स्टेट अमेंडमेंट के लिए विधान सभा से विधेयक पास कराना होगा । म प्र के राज्यपाल को कानून लागू करने के पहले केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होगी क्योकि म प्र में किया जाने वाला संशोधन , केंद्र सरकार के हालिया संशोधन को dilute करने वाला होगा ।
(एक शीर्ष पुलिस अधिकारी भोपाल)
8225812813