अभिषेक वाघमारे
मुंबई, 24 जनवरी | मुंबई, भिवंडी और अहमदाबाद। भिवंडी एक समय एशिया का मानचेस्टर कहा जाता था, लेकिन बांग्लादेश और वियतनाम से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ चुका है। भिवंडी में देश के कुल करघे का छठा हिस्सा है और यहां 65 लाख से ज्यादा करघे हैं। करघा मशीन से ही सूत से कपड़ों का निर्माण होता है।
मुंबई से करीब 30 किलोमीटर उत्तर स्थित 15 लाख की घनी आबादी वाला शहर है। एक जमाना था, जब यह देश की कपास अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी थी, जो अकेले 2.5 करोड़ कामगारों को रोजगार प्रदान करता था। यह कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता था।
भारतीय वस्त्र उद्योग पहले से ही निर्यात में कमी, कम उत्पादकता और बढ़ती कीमतों की चुनौतियों का सामना कर रहा है। लेकिन 8 नवंबर को लागू की गई नोटबंदी के बाद भिवंडी और अधिक अशक्त हो गया है।
असद फारुखी (65) भिवंडी में पिछले 30 सालों से 100 से ज्यादा करघा चला रहे हैं। उनका कहना है, “नोटबंदी ने हमको पांच साल पीछे फेंक दिया।”
इस उद्योग में बेटा अक्सर पिता का कारोबार संभालता है। असद के बेटे आफताब (34) याद करते हैं कि किस प्रकार वे बचपन में समृद्धि से रहते थे और एक खेप से 20,000 रुपये की कमाई बहुत सामान्य बात थी।
आफताब का कहना है, “पिछले महीने हमने अपने सारे करघे के कारोबार से 17,000 रुपये की कमाई की।” वे कहते हैं कि 1996-97 में कमाए गए 20,000 रुपये की कीमत औसत महंगाई 6.5 फीसदी सालाना को ध्यान में रखते हुए आज के जमाने में 70,000 रुपये के बराबर है।
व उद्योग का देश के सकल घरेलू उत्पाद में 2 फीसदी का योगदान है। महाराष्ट्र में 11 लाख से ज्यादा पावरलूम है, जो देश का सबसे बड़ा हब है। भिवंडी, मालेगांव धुले, सांगली और शोलापुर में करघा कारोबार से 10 लाख लोगों की प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है।
भिवंडी टेक्सटाइल एसोसिएशन के अध्यक्ष मन्नान सिद्दीकी पिछले 20 सालों से भिवंडी के लूम कारोबार के पुर्नजीवित करने में लगे हैं। वे कहते हैं, “केवल 20 फीसदी लूम ही अब चल रहे हैं।”
मुंबई से उत्तर-पश्चिम 270 किलोमीटर दूर मालेगांव में करघा कारोबार संघर्ष कर रही है।
करघा कारोबार पूरी तरह नकदी पर आधारित है। खेत से लेकर कपड़ा फैक्ट्री तक, वस्त्र निर्माता से थोक बिक्रेता तक और थोक विक्रेता से खुदरा विक्रेता तक हर जगह नकदी ही चलती है। इस उद्योग से जुड़े श्रमिकों को मजदूरी भी नकद ही दी जाती है।
वस्त्र उद्योग देश के संगठित क्षेत्र का सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है और पिछले तीन सालों में इस क्षेत्र में 4,99,000 नए रोजगार पैदा हुए हैं।
मुंबई का मंगलदास बाजार शहर का सबसे बड़ा व बाजार है। यह शहर एक जमाने में कपड़ा मिलों और मजदूर संघों के लिए जाना जाता था, लेकिन अब दोनों अतीत का हिस्सा बन चुके हैं। यहां के चंद्रकांत का कहना है कि नवंबर से फरवरी के बीच कारोबार में 20 फीसदी की गिरावट आई है, जबकि इस दौरान शादी से लेकर ठंड तक का शॉपिंग सीजन होता है। वे कहते हैं इस गिरावट का प्रमुख कारण नोटबंदी है।
चंद्रकांत ने बताया, “उपभोक्ता सरल और सादा कमीज खरीद रहे हैं और लक्जरी वस्तुओं की मांग घटी है। लोग मितव्ययी हो रहे हैं।”
इसी बाजार में कपड़ा और परिधान के खुदरा व्यापारी कृपेश भयानी एक वस्त्र निर्माता भी हैं और मुंबई के उपनगरों में उनके 17 आयातित कपड़ा बुनाई मशीन चलता है। उनका कहना है कि उत्पादन तो अप्रभावित हैं, लेकिन कपड़ों के परिष्करण जैसे बटन और जिप लगाना आदि काम प्रभावित हुए हैं, जो कि पूरी तरह से नकदी पर आधारित है। भयानी यह काम घरेलू उद्योग से कराते हैं जो पूरी तरह नकदी पर निर्भर है।
व्यापारियों का कहना है कि कपड़ों की मांग में जहां 30 फीसदी की गिरावट आई है, वहीं, थोक मांग में 50 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है।
मंगलदास मार्केट वस्त्र विक्रेता एसोसिएशन के सचिव भरत ठक्कर का कहना है, “हमारा बाजार नवंबर से फरवरी के सीजन के दौरान हमेशा भरा रहता था। यहां दुकानदार ग्राहकों की बाढ़ से निपटने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। लेकिन अब यहां के अपेक्षाकृत खाली दूकान सारी कहानी बयान कर रहे हैं।”
अहमदाबाद के न्यू क्लॉथ मार्केट में बिक्री 80 फीसदी तक गिर चुकी है। मार्केट एसोसिएशन के सचिव राजेश अग्रवाल ने हमें यह जानकारी दी। उन्होंने विस्तार से बताया कि नोटबंदी के बाद से उनके 80 में से 60 एंब्राडरी कर्मचारी घर लौट चुके हैं। जब बिक्री गिर गई और नकदी खत्म हो गई। तो वे उन्हें वेतन नहीं दे पाए। अग्रवाल ने बताया कि मजदूरों ने भीड़ से भरे बैंकों में खाता खोलने की परेशानी झेलने की बजाए अस्थायी रूप से बेरोजगार रहने को प्राथमिकता दी और घर लौट गए।
द फाइनेंसियल एक्सप्रेस की 3 दिसंबर को प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया, “नोटबंदी का नतीजे के रूप में तत्काल अवधि में उपभोक्ताओं द्वारा खर्च में कमी करने का नतीजा है कि व उद्योग के उत्पाद की घरेलू मांग में कमी आई है।”
इसका नतीजा यह हुआ कि खुदरा विक्रेताओं ने थोक विक्रेताओं को दिए हुए ऑडर्स को रद्द कर दिया।
वहीं, कपड़ा निर्माण में सूती कपड़ा मुख्य कच्चा माल है। नवंबर से जनवरी के बीच सूती उत्पादक किसान नोटबंदी के कारण नकद भुगतान नहीं ले पाए।
यहां पशुपति मिल चलानेवाले मुकेश पटेल का कहना है, “हमारे मिल में रोजाना कपास से लदी 30 गाड़ियां आती थीं। लेकिन 6 जनवरी को केवल पांच गाड़ियां ही कपास बेचने आईं। नोटबंदी के बाद हमने अधिकतम 15 गाड़ियों को आते देखा है। किसान केवल नकदी मांगते हैं, क्योंकि उन्हें अपने मजदूरों को नकदी देना होता है।”
वे कहते हैं, “यहां कैशलेस काम नहीं करेगा।”
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