वेटिकन सिटी : जितने गरीब और निराश्रित लोगों की मदर टेरेसा ने सेवा की है उनके लिए तो वे जीवित संत थीं.
वेटिकन की दुनिया में भी कई लोगों का यही मानना होगा लेकिन कैथोलिक चर्च की किसी भी शख्सियत को संत घोषित करने की एक आधिकारिक प्रक्रिया है जिसके तहत बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक शोध, चमत्कारों की खोज और उसके सबूत का विशेषज्ञों के दल के द्वारा आकलन किया जाता है.
मदर टेरेसा के मामले में इस प्रक्रिया का समापन कल हो जाएगा जब पोप फ्रांसिस मदर को चर्च की सबसे नयी संत घोषित करेंगे.
इसके लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया जाएगा, वह इस प्रकार है, संत घोषित करने की प्रक्रिया की शुरुआत उस स्थान से होती है जहां वह रहे या जहां उनका निधन होता है. मदर टेरेसा के मामले में यह जगह है कोलकाता.
प्रॉस्ट्यूलेटर प्रमाण और दस्तावेज जुटाते हैं और संत के दर्जे की सिफारिश करते हुए वेटिकन कांग्रेगेशन तक पहुंचाते हैं. कांग्रेगेशन के विशेषज्ञों के सहमत होने पर इस मामले को पोप तक पहुंचाया जाता है. वे ही उम्मीदवार के ‘‘नायक जैसे गुणों” के आधार पर फैसला लेते हैं.
अगर प्रॉस्ट्यूलेटर को लगता है कि उम्मीदवार की प्रार्थना पर कोई रोगी ठीक हुआ है और उसके भले चंगे होने के पीछे कोई चिकित्सीय कारण नहीं मिलता है तो यह मामला कांग्रेगेशन के पास संभावित चमत्कार के तौर पर पहुंचाया जाता है जिसे धन्य माने जाने की जरुरत होती है. संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया का यह पहला पड़ाव है.
चिकित्सकों के पैनल, धर्मशास्त्रीयों, बिशप और चर्च के प्रमुख (कार्डिनल) को यह प्रमाणित करना होता है कि रोग का निदान अचानक, पूरी तरह से और दीर्घकालिक हुआ है और संत दर्जे के उम्मीदवार की प्रार्थना के कारण हुआ है. इससे सहमत होने पर कांग्रेगशन इस मामले को पोप तक पहुंचाता है और वे फैसला लेते हैं कि उम्मीदवार को संत घोषित किया जाना चाहिए.
लेकिन संत घोषित किए जाने के लिए दूसरा चमत्कार भी जरुरी होता है.
संत घोषित करने की प्रक्रिया की आलोचना भी होती है क्योंकि इसे खर्चीला, गोपनीय माना जाता है. यह भी माना जाता है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है तथा राजनीति, वित्तीय और आध्यात्म क्षेत्र के दबाव के चलते किसी एक उम्मीदवार को कम समय में संत का दर्जा मिल सकता है जबकि कोई और सदियों तक इसके इंतजार में रहना पड सकता है.