भय को जीवन की सहज प्रवृत्ति माना जाता है। अनुशासन, व्यवस्था, नियमादि के पालन के लिए भय की उपयोगिता है। जीवन की सुरक्षा, बचाव और सावधानी आदि के लिए भय की आवश्यकता है। इसके बावजूद भय एक सीमा तक सहनीय और उपयोगी भले ही हो, लेकिन लगातार डरे व सहमे-सहमे रहना, मूढ़ता, जड़ता, अज्ञान और आतंक से त्रस्त ग्रस्त रहना ठीक नहीं है। भय से मनोबल भी क्षीण होता है। इस कारण अधीरता, व्याकुलता और अस्थिरता की मनोदशा पैदा होती है। ऐसी मनोदशा में चिंता का जाल-जंजाल बुनकर मनुष्य अपने चिंतन को बिगाड़ लेता है। भय की प्रतिक्त्रिया से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसी कारण भय को मानसिक रोग माना जाता है, जो अच्छे विचार तंत्र को लड़खड़ा देता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जितने व्यक्ति शारीरिक बीमारियों से मरते हैं, उससे कहीं अधिक भय, चिंता के परिणामस्वरूप कालांतर में मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
भयभीत मनस्थिति में रस्सी का सांप और झाड़ी में भूत दिखाई देने की बात व्यर्थ नहीं है। उस समय भय के कारण विचार तंत्र लुंज-पुंज स्थिति में होता है। अशिक्षित, अज्ञानी और शंकालु मनोदशा के लोग यथासमय विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम नहीं होते। इसलिए वे अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं। लोगों के ज्यादातर भय हालांकि काल्पनिक होते हैं। फिर भी उनकी प्रतिक्त्रिया शरीर पर होती अवश्य है। अभाव, बीमारी, वृद्धावस्था, रोग, शोक, घाटा, असफलता और नकारात्मक विचारों व कल्पनाओं की उधेड़बुन में जिन लोगों का समय बर्बाद होता है, उन्हें कल्पनिक भय घेरे रहते हैं। भय के संस्कार बाल्यकाल से ही दिमाग में अपनी पैठ बना लेते हैं। बालकों की मनोदशा के निर्मल और उनकी समझ के परिपक्व न होने के कारण भय के संस्कारबीज शीघ्रता से दिमाग में प्रवेश कर जाते हैं। यदि उसी समय प्रयास न किया गया, तो आजीवन भय के संस्कार बीजों को उखाड़ा जाना संभव नहीं हो पाता। उज्जवल भविष्य की कल्पना करने और उसे साकार रूप देने में जो परिश्रमी व्यक्ति संलग्न रहते हैं, उन्हें भय के बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता।