एक बार राजा जनक ने अपनी यौगिक क्रियाओं से स्थूल शरीर का त्याग दिया। तब स्वर्गलोक से एक विमान उनकी आत्मा को लेने के लिए आया। देवलोक के रास्ते से जनक कालपुरी पहुंचे जहां बहुत से पापी लोग प्रताड़ित किये जा रहे थे।
उन लोगों ने जब जनक को छूकर जाती हुई हवा में सांस ली तो उन्हें अपनी प्रताड़नाओं का शमन होता अनुभव हुआ और नरक की अग्नि का ताप शीतलता में बदलने लगा। जब जनक वहां से जाने लगे तब नरक के वासियों ने उनसे रुकने की प्रार्थना की।
जनक विचार करने लगे कि, ‘यदि ये नरकवासी मेरी उपस्थिति से कुछ आराम अनुभव करते हैं तो मैं इसी कालपुरी में रहूंगा। यही मेरा स्वर्ग होगा।’
ऐसा विचार करते हुए वह वहीं कालपुरी में रूक गए। तब काल विभिन्न प्रकार के पापियों को उनके कर्मानुसार दंड देने के विचार से वहां पहुंचे और जनक को वहां देखकर यमराज ने पूछा कि, ‘आप यहां नरक में क्या कर रहे हैं?’
जनक ने अपने ठहरने का कारण बताते हुए कहा कि वे वहां से तभी प्रस्थान करेंगे जब यमराज उन सबको मुक्त कर देंगे। यमराज ने प्रत्येक पापी के विषय में बताया कि उसे क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है।
जनक ने यमराज से उनकी प्रताड़ना से मुक्ति की युक्ति पूछी। यमराज ने कहा, ‘तुम्हारे कुछ पुण्य इनको दे दें तो इनकी मुक्ति हो सकती है।’ जनक ने अपने पुण्य उनके प्रति दे दिये। उनके मुक्त होने के बाद जनक ने काल से पूछा, ‘मैंने कौन सा पाप किया था कि मुझे यहां आना पड़ा?’
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यमराज ने कहा, ‘हे राजन! संसार में किसी भी व्यक्ति के तुम्हारे जितने पुण्य नहीं हैं, पर एक छोटा-सा पाप तुमने किया था। एक बार एक गाय को घास खाने से रोकने के कारण तुम्हें यहां आना पड़ा।
अब पाप का फल पा चुके सो तुम स्वर्ग जा सकते हो।’ विदेह (जनक) ने यमराज को प्रणाम कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा जनक को इसी घटना के बाद से ही विदेह कहा जाने लगा।