गीताकार ने अर्जन को और उनके माध्यम से मानव को प्रेरणा दी है कि अपना उद्धार स्वयं करें। अपनी समृद्धि के लिए स्वयं तत्पर, उद्यत हों। अपने उत्थान और पतन की जिम्मेदारियां स्वयं वहन करें। यदि जीवन में हमें ऊंचा उठना है तो हमें स्वयं ही पुरुषार्थ करना होगा।
शक्तियों का स्नोत हमारे भीतर है। जब हमारा आत्मबल बढ़ता है तो साहस, धैर्य और लगन की कमी महसूस न होगी। सद्गुण उपयुक्त मात्र में विद्यमान हों तो वैसी परिस्थितियां सहज ही बनती चली जाती हैं। तब आगे बढ़ना और ऊपर उठना सरल बन जाता है। ईश्वर हमारी सहायता करता है, पर करता तभी है जब वह हमारी पात्रता देख लेता है। सहयोग करने वाले लोगों और आगे बढ़ने में सहायता करने वाले सज्जनों की भी इस दुनिया में कमी नहीं है, पर वह सहायता मिलती तभी है जब हम अपनी पात्रता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते हैं। सहायता का उपयोग भी तभी है, जब हम उसके पात्र हों, अन्यथा सहायता निष्फल हो जाती है।
कुपात्र की सहायता करने से उसमें आलस्य, अहंकार आदि दुष्प्रवृत्तियां बढ़ जाती हैं। अपने को सुधारना सबसे सहज प्रक्त्रिया है। अपने ऊपर तो नियंत्रण किया जा सकता है। इसीलिए विश्व कल्याण या समाज सुधार का कार्य शुरू करने से पहले हमें आत्मकल्याण का कार्य करना चाहिए। हम भी संसार के ही एक अंश हैं। हम अपना जितना सुधार कर लेते हैं, उतने ही अंशों में संसार के सुधार में सहायता करते हैं। जिस प्रकार कोई बुरा व्यक्ति बुराई फैला सकता है, वातावरण दूषित कर सकता है, उसी प्रकार एक सज्जन व्यक्ति अपनी अच्छाई से स्वयं ही लाभान्वित नहीं होता, बल्कि वह अनेक लोगों को भी सुख-शांति प्रदान करने में सहायक होता है। सामाजिक प्राणी होने के कारण हम स्वभावत: अपना प्रभाव दूसरों पर छोड़ते हैं। फिर जो जितना ही मनस्वी होगा वह अपनी अच्छाई या बुराई का भला-बुरा प्रभाव भी उसी अनुपात से संसार में फैलाएगा। कहा भी गया है कि सुधारना है तो स्वयं को सुधारो। आत्मनिरीक्षण करते ही सुधार की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।