अंबाला शहर की सब्जी मंडी के निकट स्थित ऐतिहासिक गद्दी दरगाह टीला गुरु गोरक्षनाथ मंदिर भारत में नाथ योगियों के मठों में सर्वोच्च माना जाता है।
प्राचीन काल से ही टीला गुरु गोरक्षनाथ मंदिर को भारत में योगियों का परम पावन तीर्थस्थल माना जाता है जिस कारण इस टीला गुरु गोरक्षनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व भी है। टीला गुरु गोरक्षनाथ हिमाचल पर्वत की ही शाखा समझा जाता है तथा यह भी मान्यता है कि शिव-पार्वती कई बार भ्रमण करते-करते इस टीले पर जाकर विश्राम करते थे। इस टीले को बाल गुदाई और लक्ष्मण का टीला भी कहा जाता है जो अब पाकिस्तान में है। जनश्रुति के अनुसार पूर्व कल्प में जब सती का दूसरे जन्म में भगवान शिव से विवाह हुआ था तो शिव की बारात इसी गुरु गोरक्षनाथ टीले से चली थी तथा त्रेतायुग में राम अवतार के बाद अपने अंतिम चरण में लक्ष्मण योगी बनकर टीले में आए और उन्होंने गोरक्षनाथ का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था। अनेक श्रद्धालु आस्थावश इस टीले को टिल्ला भी कहते हैं। नाथ संप्रदाय में धूने का बहुत अधिक महत्व है जिस कारण हर योगी के मठ या आश्रम में धूने का स्थान जरूर बना रहता है जिसे नाथजी का धूना कहा जाता है। श्रद्धालुओं को इसी धूने की भभूति प्रसाद के रूप में दी जाती है। टीले के भवन में भी गोरक्षनाथ का धूना स्थित था। श्रद्धालुओं की धारणा है कि सर्वप्रथम गोरक्षनाथ ने टीले के स्थान पर ही धूना जलाया था और तभी से वह धूना उसी स्थान पर स्थित है। जब गोरक्षनाथ टीले का स्थान छोड़कर जाने लगे तो योगियों ने गोरक्षनाथ से प्रार्थना की कि आपके जाने के बाद इस स्थान का महत्व कैसे प्रतीत होगा। तबगोरक्षनाथ ने जलते धूने में से एक लकड़ी निकाली और उस स्थान पर एक किल्ला गाड़ दिया। बाद में उस लकड़ी ने एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया जिसकी दो बड़ी टहनियां एक सूखी और दूसरी हरी बन गई। इस विषय में कहावत है :
जब तक किल्ला, तब तक टीला, आधा सूखा, आधा गीला।
इस टीले के बारे में गोरक्षनाथ खुद कह गए थे कि जब तक यह किल्ला इस स्थान पर स्थापित रहेगा तक तक इस टीले का मठ सुरक्षित रहेगा। जब इस किल्ले की हरी टहनी भी सूख जाएगी तो यह स्थान भी परिवर्तित हो जाएगा। भारत के विभाजन तक वह वृक्ष अपने स्थान पर यथावत स्थित था तथा हिन्दू और मुसलमान सभी टीले के प्रति तथा योगियों में गहरी आस्था रखते थे। टीले की गद्दी पर वर्ष 1920 में पीर कलानाथ आसीन हुए थे और उन्हीं के समय में वर्ष 1947 में भारत व पाकिस्तान का विभाजन हुआ। भारत आने के बाद अंबाला शहर की सब्जी मंडी के निकट वर्ष 1951 में गुरु गोरक्षनाथ में आस्था का विस्तार करते हुए एक भवन खरीदा गया जिसे टीले की दरगाह अथवा गद्दी का स्थान माना जाता है। अंबाला के ऐतिहासिक व पौराणिक टीला गुरु गोरक्षनाथ मंदिर में शिवरात्रि और गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
पीर कलानाथ के बाद पीर समुंद्रनाथ वर्ष 1952 से लेकर 1966 तक गद्दीनशीन रहे। उनके बाद पीर श्रद्धानाथ 1991 तक गद्दीनशीन रहे। वर्ष 1991 में पीर श्रद्धानाथ ब्रह्मलीन हो गए तथा उनकी समाधि वहीं पर बना दी गई। माना जाता है कि इस समाधि पर जो भी भक्त सच्ची आस्था से आकर मन्नत मांगता है तो उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। लोक मान्यता है कि यहां संतानहीन महिलाएं आती हैं जो अपनी खाली झोली भरके जाती हैं। इस समय पीर पारसनाथ टीला गुरु गोरक्षनाथ में गद्दीनशीन हैं और टीले की परंपराओं को अपने पावन सान्निध्य से सींच रहे हैं। अब यह मंदिर विशाल और भव्य रूप में दिखाई देता है। इस मंदिर के गुंबद पर सोने का क्लश भी चढ़ाया गया है। वर्तमान में यहां पर निर्मित श्री सिद्धेश्वर ओंकारेश्वर ज्योति शिव मंदिर हर श्रद्धालु को अपनी और आकर्षित करता है। यहां बारहादरी गोशाला भी गोसेवा की प्रतीक बनी हुई है। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी महाशिवरात्रि महोत्सव गद्दीनशीन पीर पारसनाथ की अध्यक्षता में नौ मार्च से ग्यारह मार्च तक जगाधरी गेट के पास श्रीनाथ नगर में गद्दी दरगाह टीला गुरु गोरक्षनाथ मंदिर में धूमधाम से मनाया जाएगा।
नौ मार्च को सांयकाल भजन संध्या का कार्यक्रम रहेगा। दस मार्च को पीर पारसनाथ द्वारा सुबह गुरुदीक्षा दी जाएगी तथा बाद में भजन संकीर्तन व शिव महिमा का गुणगान किया जाएगा। ग्यारह मार्च को गद्दी की रस्म होगी। मान्यता है कि इस गद्दी की रस्म के समय जो भी टीलाधीश से आशीर्वाद लेते हैं उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।