मूर्ति के रूप में पूजने और मंदिरों में आराधना का चलन तो बाद में शुरु हुआ पर सूर्य की उपासना वैदिक काल में भी प्रचलित थी। आकाश में चमकते आग के विराट गोले की तरह अपनी मौजूदगी से पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले सूर्य को देखकर मनुष्य का ध्यान अपने भीतर बैठी सूक्ष्म शक्तियों की ओर गया।
उन शक्तियों को जगाने के क्रम में ही ऋषि ने गाया कि सूर्य जगत की आत्मा है या वह मनुष्य का और जीवमात्र का नेत्र है। इस आध्यात्मिक सच्चाई की चर्चा से पहले प्रसिद्ध नक्षत्र विज्ञानी जे.एस. पुंडीर ने अपने अध्ययन में बताया है कि सूर्य व्यक्ति को जीवन भर तो प्रभावित करता ही है, उस प्रभाव की रूपरेखा जन्म के समय ही तय कर देता है।
हर ग्यारहवें साल पर वृक्षों के तने पर एक गहरा छल्ला बनता है। इसकी वजह क्रम से ग्यारह वर्ष में सूर्य पर आने वाले चुंबकीय और नाभिकीय तूफान हैं। अंतरिक्ष विज्ञानी डा. लिंडन वोहर का कहना है कि ये नाभिकीय तूफान वृक्षों के साथ जीव जंतुओं और अंतर्ग्रही आदान प्रदानों को भी प्रभावित करते हैं।
कीट पतंगे से ले कर ग्रह नक्षत्रों तक, सौर मंडल के हर घटक पर सूर्य की सतह पर आने वाले आग्नेय तूफानों का अलग-अलग असर पड़ता है। विस्तार से किए अध्ययन के बाद वोहर ने अपनी पुस्तक ‘द वाइब्रेंट लाइफ साइकल आन सन’ में लिखा है कि सूर्य में मचनेवाली उथल-पुथल के असर को एक पंक्ति में कहना चाहें तो कहेंगे कि इन तूफानों के कारण जीवन जिन रूपों में भी मौजूद है हर ग्यारहवें साल विक्षुब्ध होता है।
इन अध्ययनों का सारतत्व यह कि जीव जंतु और वृक्ष वनस्पति आखिरकार एक ही धड़कन से संचालित होते हैं। उपनिषदों का यह संदेश सौ प्रतिशत सही है कि सूर्य जगत की आत्मा है।