ध्यान का अर्थ है मन को एक ही श्रेणी के विचारों की एक श्रृंखला पर एकाग्र करना। ध्यान का तत्व ही है विचार, अंतरदर्शन या मानसिक एकाग्रता। ध्यान की प्रक्रिया निदिध्यासन की तुलना में कहीं ज्यादा सरल है। हम अपनी क्षमता के अनुसार इनमें से किसी एक का चयन कर सकते हैं। ध्यान या निदिध्यासन के लिए ब्रहम ही उत्तम विषय है। मन को जिस विचार पर तल्लीन होना चाहिए-वह है सबमें भगवान, सब कुछ भगवान में और सब कुछ भगवान। वह अवस्था उत्तम होती है जब हमें ध्यान करने के लिए किसी प्रकार का प्रयास ही न करना पड़े। ध्यान में हमारी प्रगति तभी मानी जाती है जब भगवान में एकाग्रता हमारे जीवन की परम आवश्यकता बन जाए, हम उसके बिना रह न सकें और भगवान के बारे में सदैव सचेतन रहें। ध्यान दो प्रकार का होता है-व्यक्तिगत और सामूहिक। जैसे गिरजाघर, मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे में एकत्र होकर लोग सामूहिक ध्यान करते हैं या कार्य विशेष के संपन्न होने के लिए सामूहिक प्रार्थना करते हैं। व्यक्तिगत ध्यान में एक आसन पर बैठकर हम अपने आपको ध्यान के लिए तैयार करें और फिर स्थिर और शांत होने की कोशिश करें।
एकाग्रता का अर्थ है अपनी चेतना के बिखरे हुए सभी धागों को एक ही बिंदु पर, एक ही भाव या विचार पर वापस ले आना। जो लोग पूर्ण मनोयोग की स्थिति प्राप्त करने में समर्थ होते हैं वे लोग जो भी कार्य अपने हाथ में लेते हैं उसमें सफल होते जाते हैं। मनुष्य संकल्प शक्ति को, एकाग्रता की शक्ति को बढ़ा सकता है। केवल आवश्यकता है नियमित अभ्यास की। हम जीवन में कुछ भी करना चाहें, उसके लिए ध्यान एकाग्र करने की क्षमता होनी चाहिए। एकाग्रता को दृढ़ संकल्प द्वारा बनाए रखा जा सकता है। कोई भी आध्यात्मिक बाधा ऐसी नहीं है जो एकाग्रता की मर्मभेदी शक्ति का प्रतिरोध कर सके। किसी भी वस्तु पर एकाग्र होकर हम उसे जान सकते हैं। एकाग्रता द्वारा समस्त संकल्पों को पूर्ण किया जा सकता है।