जगदलपुर – बस्तर के ककालगुर गांव के आदिवासियों ने दशहरे के रथ के लिए लकड़ी देने से इनकार कर दिया है. इस गांव के आदिवासी कोई छह सौ बरसों से दशहरे के लिए पूरी श्रद्धा से खुशी-खुशी लकड़ी देते आ रहे थे. पर अब ऐसा क्या हुआ कि आदिवासियों की श्रद्धा दरकिनार हो गई?
दशहरा तिहार के लिए लकड़ी देकर ककालगुर गांव धन्य था. यह उसके लिए बड़े गर्व की बात थी कि बस्तर के इस सबसे बड़े पर्व का रथ उसके गांव की लकड़ी से तैयार होता है.
आज यह गांव सारी परंपराएं भूलकर लकड़ी देने से मुकर रहा है. गांव के लोगों का कहना है कि परंपरा के नाम पर सदियों से उनका शोषण हो रहा है. उनके गांव से लकड़ी ले जाकर लोग उसका गलत इस्तेमाल करते हैं.
दशहरे के रथ के नाम पर हर साल टीक के ढाई मीटर व्यास वाले 50 से 60 पेड़ काटे जाते हैं. इन पेड़ों की उम्र करीब 80 से सौ साल बताई गई है. इनके तने भी काट लिए जाते है.
ये सिलसिला शताब्दियों से चला आ रहा है. अब आस्था के नाम पर व्यापारी हावी हो रहे है. उनके जंगल खत्म हो रहे है, जिसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं हैं.
हम अपने जं गलों में किसी को घुसने नहीं देंगे- यह फैसला बाकायदे ग्राम सभा का आयोजन करके लिया गया हैं. ककालगुंर के सरपंच ने बताया कि अगर लकड़ी के लिए जोर-जबरदस्ती हुई तो वह इसका डटकर विरोध करेंगे.
पर अगर यह हठधर्मिता जारी रही तो बस्तर का दशहरा इस बार मुश्किल में पड़ सकता है. जब उनसे पूछा गया तो गांव के लोगों ने कहा कि रथ के लिए जैसी लकड़ी चाहिए वह तो बस्तर के जंगलों में बिखरी हुई है. हमारे गांव से ही लकड़ी ले जाना जरूरी नहीं है.
ककालगंर गांव दरभा क्षेत्र में पड़ता है यह वही इलाका है जहां रपतम घटी है. इस इलाके में बड़ा नरसंहार हुआ था, जब यहां हुए नक्सली हमले में कांग्रेस के महेंद्र कर्मा और विद्याचरण शुक्ल सहित पहली पंक्ति के बड़े नेता मारे गए थे.
बस्तर का यह दशहरा चालुक्यवशीय राजा पुरुषोत्तम देव के वक्त से मनता चला आ रहा है. इसकी शुरुआत 1410 में मानी जाती हैं.
कहते हैं राजा भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे. वह अपने सिपहसालारों के साथ बहुत-सी भेंट लेकर पुरी पहुंचे थे. उन्होंने यह यात्रा लेटकर दंडवत की थी. इससे भगवान जगन्नाथ प्रसन्न हुए और उन्हें रथपति होने का आशीर्वाद दिया था.
तब से बस्तर में दशहरे पर सोलह पहियों का रथ चलने लगा. समय के साथ पहियों की संख्या घटकर आठ हो गई है. पर आस्था की यह परंपरा जारी है.
बस्तर में जगन्नाथपुरी की तरह गुडिंचा पर्व पर भी रथ चलता है. यह पर्व गांचा कहलाता है. दशहरे की यह परंपरा काकतीय वंश में भी जारी रही.
बस्तर का दशहरा राम और रावण की पौराणिक कहानियों से मुक्त केवल आदिवासियों का महापर्व हैं, जिसमें गांव और जातियों की शिरकत का खास खयाल रखा गया है.
जैसे हिंदुओं के इस महापर्व की शुरुआत की घोषणा मिरिगन जाति की नन्हीं कन्या करती है. मिरिगन बस्तर में हरिजन हैं और वही काछिन देवी को कांटे के झूले में झूलकर गद्दी देती है.
इसी तरह रथ का निर्माण झाडउमर और बेडाउमर गांव के लोग करते हैं. रथ के लिए लोहे का काम उमर गांव के लोग करते हैं और रथ खींचने के लिए डेढ़ सौ फुट लंबी चार रस्सियां बनाने का काम सदियों से करंजी गांव के लोग करते हैं.
रथ की सजावट चोलनार गांव के जिम्मे हैं. दशहरे का कर्मकांड मैथिल ब्राह्मण और उड़िया ब्राह्मण परिवारों के बीच बंटा हुआ है. वहां जोगी हमेशा हलबा परिवार से ही बैठाया जाता है.
दशहरे की यह जातीय व्यवस्था समय के साथ चरमराने लगी है. पहले दशहरे का जो उत्साह रहता था बस्तर में जो तैयारियां होती थीं अब नहीं होती.
इसकी वजह यह भी है कि 25 मार्च 1966 को बस्तर के शासक प्रवीरचंद्र भंजदेव की हत्या के बाद आदिवासी सहमकर रहने लगे थे. उनका बाहरी लोगों पर विश्वास टूट गया था.
मुख्यधारा की तरफ बढ़ते आदिवासी इस घटना के बाद आमजन से कतराने लगे. आदिवासियों की शिरकत कम होने से सैलानियों की दिलचस्पी भी जाती रही.
अब जो सैलानी आते हैं उन्हें दशहरे में रोमांचक कुछ भी नहीं लगता. इसकी वजह यह है कि दशहरे का सरकारीकरण हो गया है.
प्रवीर की हत्या के बाद पहले तो उनके परिवार में ही दशहरे पर विवाद चलता रहा, बल्कि कह लें एक तरह का शक्ति परीक्षण0. उनके छोटे भाई विजयचंद्र भंजदेव को सरकारी मान्यता जरूर थी, पर अगर वो रथ पर बैठ जाते तो बलवा हो जाता.
आदिवासी उन्हें राजा मानने को तैयार नहीं थे. सरकार ये जानती थी इसीलिए उस बरस प्रवीर की पत्नी महारानी वेदवती को दशहरे का कर्ता बनाया गया रथ पर दंतेश्वरी माई का छत्र आसीन हुआ और कर्मकांड महारानी वेदवती ने निपटाए.
इसी वीच प्रवीरचंद्र भंजदेव के छोटे भाई और सरकारी मान्यता प्राप्त शासक विजयचंद्र भंजदेव की भी मृत्यु हो गई और दशहरे कर्ता बनने के लिए देवरानी-जेठानी यानी दोनों विधवा रानियों में तलवारें खिंच गई.
सरकार ने जब यह देखा तो दशहरा अपने हाथ में ले लिया. सरकार को राजनीतिक परिस्थिति के हिसाब से जो सही लगता वह उसी के हक में फैसला ले लेती.
बाद में जो भी सरकारें आई उनके लिए दशहरा सिर्फ रस्म अदायगी थी ताकि आदिवासी भावनाएं महफूज रहें और उनका समय और सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सके.
अब भी दशहरे की परंपराएं सारी निभाई जाती हैं. मसलन बिसहा पैसा काछिन गादी, मावली परघाव, जिसमें राजा शहर के बीच से देवी की डोली को कंधा दिए निकलते थे.
सबसे अहम था दशहरे के समापन पर मुरिया दरबार. यह दरबार खास रंगारंग होता था. सन 1965 तक महाराजा प्रवीर खुद यह दरबार लगाते थे. इसमें भारी भीड़ होती थी. पूरा शहर खचाखच भरा रहता था.
इसमें जिले की समस्याओं पर चर्चा होती थी. मांझी मुखिया अपनी बात रखते थे. अब कलेक्टर कमिश्नर ये दरबार चलाते हैं, जो न आदिवासी ज़बान समझते हैं, न भावना.
आदिवासी अब हिंदी समझ लेते हैं पर उन्हें इन अफसरों से बात करते झिझक होती हैं, वो अपनापन नहीं लगता.
कुल मिलाकर दशहरा अब सिर्फ रस्मअदायगी है, जिसमें धकेलकर आदिवासी भले जुटा लिए जाएं पर अपने पुरखों से उन्होंने जो दशहरे की रंगत सुनी है उस वजह से मन से शामिल नहीं हो पाते.
इरा झा की रिपोर्ट