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बस्तर:काछिनगादी परंपरा से बस्तर दशहरे की शुरूआत

October 7, 2021 9:35 am by: Category: धर्म-अध्यात्म Comments Off on बस्तर:काछिनगादी परंपरा से बस्तर दशहरे की शुरूआत A+ / A-
जगदलपुर: बस्तर का दशहरा अपने विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं रस्मों के कारण देश विदेश में प्रसिद्ध है। बस्तर दशहरा भारत का ऐसा दशहरा है जिसमें रावण दहन ना करके रथ खींचने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह दशहरा विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा है। कुल 75 दिन तक दशहरा के विभिन्न रस्मों -परंपराओं का आयोजन किया जाता है।
पाटजात्रा नामक रस्म से बस्तर दशहरा की शुरूआत हो जाती है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई एक प्रमुख रस्म है जिसमें काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। डेरी गड़ाई के बाद सबसे महत्वपूर्ण रस्म है काछिन गादी रस्म। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि से पूर्व आश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी की रस्म निभाई जाती है। काछिनगादी रस्म के निर्वहन के बाद ही दस दिवसीय दशहरा की औपचारिक शुरूआत हो जाती है।
काछिनगादी का अर्थ है काछिन देवी को गद्दी देना। काछिन देवी की गद्दी कांटेदार होती है। कांटेदार झुले की गद्दी पर काछिनदेवी विराजित होती है। काछिनदेवी का रण देवी भी कहते है। काछिनदेवी बस्तर अंचल के मिरगानों की देवी है। बस्तर दशहरा की शुरूआज 1408 ई में बस्तर के काकतीय चालुक्य राजा पुरूषोत्तम देव के शासन काल में हुई थी वहीं बस्तर दशहरा में काछिनगादी की रस्म महाराज दलपत देव 1721 से 1775 ई के समय प्रारंभ मानी जाती है।
बस्तर संस्कृति और इतिहास में लाला जगदलपुरी जी कहते है कि जगदलपुर मे पहले जगतु माहरा का कबीला रहता था जिसके कारण यह जगतुगुड़ा कहलाता था। जगतू माहरा ने हिंसक जानवरों से रक्षा के लिये बस्तर महाराज दलपतदेव से मदद मांगी। दलपतदेव को जगतुगुड़ा भा गया उसके बाद दलपत देव ने जगतुगुड़ा में बस्तर की राजधानी स्थानांतरित की। जगतु माहरा और दलपतदेव के नाम पर यह राजधानी जगदलपुर कहलाई। दलपतदेव ने जगतु माहरा की ईष्ट देवी काछिनदेवी की पूजा अर्चना कर दशहरा प्रारंभ करने की अनुमति मांगने की परंपरा प्रारंभ की तब से अब तक प्रतिवर्ष बस्तर महाराजा के द्वारा दशहरा से पहले आश्विन अमावस्या को काछिन देवी की अनुमति से ही दशहरा प्रारंभ करने की प्रथा चली आ रही है।
जगदलपुर में पथरागुड़ा जाने वाले मार्ग में काछिनदेवी का मंदिर बना हुआ है। लाला जगदलपुरी जी के अनुसार इस कार्यक्रम में राजा सायं को बड़े धुमधाम के साथ काछिनदेवी के मंदिर आते है। मिरगान जाति की कुंवारी कन्या में काछिनदेवी सवार होती है। कार्यक्रम के तहत सिरहा काछिन देवी का आव्हान करता है तब उस कुंवारी कन्या पर काछिनदेवी सवार होकर आती है। काछिन देवी चढ़ जाने के बाद सिरहा उस कन्या को कांटेदार झुले में लिटाकर झुलाता है। फिर देवी की पूजा अर्चना की जाती है। काछिनदेवी से स्वीकृति मिलने पर ही बस्तर दशहरा का धुमधाम के साथ आरंभ हो जाता है। काछिन देवी कांटो से जीतने का संदेश देती है वहीं बस्तर दशहरा में इन रस्मों का निवर्हन इस बात का प्रमाण है कि बस्तर में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है।
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