संसार में सबसे बड़ा दर्द है जीवनसाथी का वियोग यानी पति-पत्नी का एक दूसरे से अलग हो जाना। लेकिन पूर्व कर्मों के प्रभाव के कारण बहुत से लोगों को जीवनसाथी का वियोग सहना पड़ता है। कोई तलाक के कारण एक दूसरे से अलग हो जाते हैं तो कोई जीवनसाथी के असमय मृत्यु होने की वजह से विरह वेदना में जलते हैं।
शास्त्रों में इस कष्ट से मुक्ति के लिए व्रत का विधान बताया गया है ताकि मनुष्य पूर्व जन्म के प्रभाव के कारण भाग्य में लिखे वियोग को दूर सके। ऐसा ही एक व्रत है चतुर्मास के द्वितीया तिथि का व्रत। इसे अशून्यशयन व्रत के नाम से भी जाना जाता है।
भविष्य पुराण में इस व्रत के विषय में कहा गया है कि एक बार राजा शतानीक ने सुमन्तु मुनि से पूछा कि द्वितीया तिथि व्रत के बारे में बताएं जिसके करने से पति-पत्नी को एक दूसरे का वियोग नहीं सहना पड़ता है।
सुमन्तु मुनि ने कहा कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान के सोने के बाद चतुर्मास आरंभ हो जाता है।
इसके बाद सावन मास की द्वितीया से लेकर मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया तक प्रत्येक द्वितीया तिथि को पति पत्नी को साथ में व्रत रखना चाहिए। इस दिन प्रातः काल स्नानादि दैनिक कार्यों से निवृत होकर भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी माता की प्रतिमा सामने रखें।
मीठे फल जैसे खजूर, नारियल, बिजौंरा, केला भगवान को अर्पित करना चाहिए इसके बाद तिल, फूल, चंदन, दीप आदि से भगवान की पूजा करें। भगवान से प्रार्थना करें कि जिस प्रकार आपका लक्ष्मी जी के साथ हमेशा का साथ है उसी प्रकार हम पति-पत्नी का भी साथ हमेशा बना रहे।
संध्या के समय भगवान की पूजा करने के बाद जो फल भगवान को अर्पित किया है वही फल स्वयं भी ग्रहण करें। पति पत्नी को इस दिन साथ में नहीं सोना चाहिए और काम भावना से दूर रहना चाहिए।
अगले दिन ब्रह्मणों को भोजन करवाकर यही फल और दक्षिणा दें और आशीर्वाद ग्रहण करें। इस प्रकार जो पति-पत्नी व्रत पूजन करते हैं उन्हें वियोग का दुःख नहीं सहना पड़ता है तथा दांपत्य जीवन में वैभव और सुख की वृद्घि होती है।