वाराणसी। धर्म और साहित्य का लालित्य और मर्म आम जन तक पहुंचाने का वह व्यक्तित्व जो अपने आप में समूचा पौराणिक ज्ञान रखता हो वह मानस रचने का जज्बा सिर्फ और सिर्फ तुलसी में ही समाहित दिखता है।
पच्ी के ताने से उपजा क्षोभ ईश्वर प्राप्ति और भक्ति के ऐसे रचना संसार की वजह बना जो धर्म और साहित्य जगत में अप्रतिम कहलाया। 1युग बीते मगर राम कथा का सार जन जन तक पहुंचाने का उनका प्रयास आज हर घर में राम कथा का आधार बने रामचरित मानस के रूप में पूजित और पठित है। इसके साथ ही राम के दास वही तुलसी बाबा हर आंगन के चीन्हे-जाने सदस्य हैं जो मानस के दोहे-चौपाइयों की शक्ल में भ्रमों को तोड़ते हैं,कुटुंब को जोड़ते हैं।
सरस और संगीतमय पाठ करने का तानाबाना ईश्वरमय होने का महात्म्य रामचरित मानस के पाठ में समाहित है ऐसा प्रकांड विद्वान भी स्वीकारते हैं। आखिर यह स्वीकार्यता हो भी क्यों न जब रामचरित मानस की रचना ही अवधी जैसी जनभाषा में सृजित की गई है। जन्म स्थान को लेकर जो भी विसंगतियां हों मगर अवधी भाषा पर उनकी पकड़ साबित करती है कि अवधपति का उनपर अनंत स्नेह जरूर रहा है।
मान्यता है कि श्रीराम के अनन्य भक्त होने के साथ रामकथा का वाचन और सृजन करते-करते वो (इष्टिकापुरी) इटावा जिले के पंचनद क्षेत्र से प्रभु श्रीराम के आराध्य भगवान आशुतोष की नगरी काशी के गंगा तट तक पहुंचे और रामकथा का सस्वर पाठ करने वाले जन ग्रंथ रामचरित मानस को रचा। काशी प्रवास के दौरान श्रीराम को भगवान शिव शंकर के एक भक्त के तौर पर भी रचित करने में भरपूर सहायता मिली। रघुवंश तो हमेशा से ही शिव को पूजता रहा है चाहे गंगा का अवतरण हो या फिर अयोध्या नगरी में शिव का मंगल गान। उसी शिव भक्ति की परंपरा की कड़ी में भगवान श्रीराम के पुत्रों लव और कुश ने सरयू तट पर नागेश्वरनाथ की स्थापना की जो आज भी दक्षिण भारत में राम द्वारा स्थापित रामेश्वरम की ही भांति मान्य और पूजनीय है।
तुलसी जिनके भक्त थे वो शिव के अनन्य भक्तों में शुमार थे। लिहाजा काशी का महात्म्य श्रीरामचारित मानस की रचना का अभिन्न अंश है, जिससे हरिकथा की पूर्णता शायद ही हो पाती। इसी कड़ी में मान्यता यह भी है कि संकट मोचन मंदिर में तुलसीदास जी को राम के अनन्य भक्त भगवान हनुमान ने दर्शन दिया था। लिहाजा काशी का महात्म्य रामचरितमानस में बढ़ना स्वाभाविक ही है।
नौका का धर्म-कर्म ही है घाट किनारे खड़े पथिक को पार लगाना। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने जीव को भव सागर से तारने के निमित्त ब्रह्म (प्रभु श्रीराम) के चरणों से प्रीति लगाने का जो सूत्र साधा, उसकी कल्पना में उनकी नौका (तारिणी) का भी बड़ा अंशदान था, ऐसा तुलसी बाबा के जीवन से जुड़े प्रसंगों की चर्चा में आता है।
वक्त की मार से गंभीर क्षरण को प्राप्त वह नौका तो अब नहीं रही किंतु काठ के एक भग्न खंड के रूप में तुलसी घाट की एक कुटिया में संरक्षित नौका का एक हिस्सा आज दुनिया की प्राचीन नगरी काशी की अनमोल थाती है। नई बात है इस धरोहर को क्षरण से बचाने के लिए शुरु किये गए प्रयास .जो आने वाली पीढि़यों के लिए पुण्यदान से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
गोस्वामी जी की जीवन यात्रा के काशी खंड से जुड़े प्रसंगों (अब श्रुतियों में) की चर्चा में उनकी नौका और उनके नौकायन की कथा भी आती है। बताते हैं कि इसी नौका को स्वयं खेते हुए गोस्वामी जी महाराज प्रतिदिन सुबह-शाम गंगा पार रेती तक जाते थे और नित्य क्त्रियाओं से निवृत होकर संध्या वंदन में ध्यान लगाते थे। इस जतन के पीछे उनकी सोच में काशी की शुचिता की चिंता तो शामिल थी ही, गंगा की गोद में घंटे दो घंटे का यह विचरण उनके कवि हृदय को वैचारिक उड़ान के लिए हर दिन नए आकाश भी दिया करता था। मानस के कई प्रसंगों को उन्होंने इसी जल बैठकी में रचना का धरातल दिया।
सहेज को लेकर चिंता
संवत सोलह सौ असी
असि-गंग के तीर।
श्रवण शुक्ल सप्तमी
तुलसी तच्यो सरीर।।
इस प्रमाण को आधार मानें तो लगभग 550 वर्ष पुराने इतिहास की प्रतिनिधि इस अनमोल धरोहर की सहेज, अब काशी के प्रबुद्धजनों की साझा चिंता है। संकटमोचन मंदिर के तत्कालीन महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र ने अपने जीवनकाल में इस ऐतिहासिक नौका खंड सहित कुटिया में सुरक्षित गोस्वामी जी की गद्दी, खड़ाऊं तथा दुर्लभ चित्रदि की साज-संभाल के प्रयास किये थे। उसके लिए उद्यम अब शुरु हो चुके हैं।