Thursday , 24 October 2024

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उइगुर नेता को वीजा मामला : भारत की चीन नीति में बदलाव?

भारत सरकार द्वारा वल्र्ड उइगुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दोलकुन इसा को वीजा जारी करने और उसे वापस ले लेने की घटनाओं ने 28 अप्रैल से शुरू हो रहे चीन सरकार विरोधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को नया महत्व दे दिया है।

भारत सरकार द्वारा वल्र्ड उइगुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दोलकुन इसा को वीजा जारी करने और उसे वापस ले लेने की घटनाओं ने 28 अप्रैल से शुरू हो रहे चीन सरकार विरोधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को नया महत्व दे दिया है।

दोलकुन को वीजा दिए जाने के बाद भारत के कुछ अखबार इसे संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अजहर के समर्थन में चीन सरकार के कदम का भारतीय जवाब बता रहे थे, लेकिन असली कहानी उससे कहीं ज्यादा गहरी है जो ऊपर से दिख रहा है।

असल में चीन की नाराजगी इस बात पर है कि भारत सरकार ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ मानवाधिकारों और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाले चीनी संगठनों और चीनी गुलामी से मुक्ति के लिए तड़फड़ा रहे देशों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों को धर्मशाला के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हिस्सा लेने की अनुमति दे दी है।

इस सम्मेलन में तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, भीतरी मंगोलिया, ताइवान, मकाउ और हांगकांग में चीनी दादागीरी से लड़ने वाले अधिकांश संगठनों के अलावा चीन में लोकतंत्र और धार्मिक आजादी के लिए लड़ने वाले ईसाई, मुस्लिम और फालुन गांग जैसे संगठनों के नेता भी हिस्सा लेने वाले हैं। इनमें 1989 में थिएन अनमन चैक के ऐतिहासिक आंदोलन के नेता यांग जिआन ली भी शामिल हैं।

भारत सरकार का यह फैसला उन लोगों की नजर में अभूतपूर्व है जो पिछले 69 साल से चीन के मामले में भारत सरकार की दब्बू नीतियों के आदी हो चुके हैं।

यह पहला मौका है जब नई दिल्ली में बैठी किसी सरकार ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार की ईंट का जवाब उसी की शैली में पत्थर से देने का फैसला किया है। यह एक सुखद आश्चर्य है कि कांग्रेस प्रवक्ता संदीप दीक्षित ने मोदी सरकार द्वारा दोलकुन इसा को वीजा देने के फैसले का खुला समर्थन किया और इसकी प्रशंसा की।

कई लोग हालांकि भारत द्वारा दोलकुन को वीजा देकर रद्द कर दिए जाने से मायूस हैं, लेकिन वे इस बात से संतुष्ट हैं कि अन्य उइगुर नेताओं का वीजा बरकरार रखा गया है और चीनी विरोध के बावजूद धर्मशाला कांफ्रेंस पर रोक नहीं लगाई गई।

असल में धर्मशाला में इस सम्मेलन की योजना तिब्बती मानवाधिकार संगठन टिबेटन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स एंड डेमोक्रेसी ने अमेरिका से चलने वाले संगठन ‘इनिशिएटिव्स फॉर चायना’ के सहयोग से कई महीने पहले ही बना ली थी। इससे पहले इस तरह के सम्मेलन बॉस्टन, कैलिफोर्निया, ताइपेई और वाशिंगटन में हो चुके हैं।

दोलकुन इसा पूर्वी तु*++++++++++++++++++++++++++++र्*स्तान की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के केंद्रीय संघ ‘वल्र्ड उइगुर कांग्रेस’ के महासचिव हैं। सन् 1997 में चीनी कब्जे से भाग निकलने और जर्मनी में जा बसने से पहले अपने उइगुर समाज के मानवाधिकारों के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन चलाने के कारण चीन सरकार उन्हें कई बार जेल भेज चुकी थी।

चीन सरकार ने वर्ष 2003 में उन्हें ठीक उस तरह ‘आंतकवादी’ घोषित करवाया था, जैसा मसूद अजहर के मामले में उसने रुकवा दिया है। कुछ प्रेक्षकों को लगता है कि दोलकुन का वीजा रद्द करने के पीछे भारत सरकार का यह डर भी था कि जर्मनी से भारत और वापसी की यात्रा में अगर इंटरपोल दोलकुन को गिरफ्तार करके चीन के हाथ सौंपती है तो भारत इसे रोक नहीं पाएगा।

कुछ महीने पहले एक साक्षात्कार में दोलकुन इसा ने ‘आतंकवादी चीनी’ लेबल के बारे में कहा था, “1949 में हमारे देश पूर्वी तुर्किस्तान पर कब्जा करने के बाद चीन सरकार मेरे जैसे उन सभी लोगों के लिए ‘अपराधी’, ‘गुंडों के गिरोह’ और ‘डाकू’ जैसे लेबल का इस्तेमाल करती थी। लेकिन अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद जब से ‘आतंकवादी’ शब्द मशहूर हुआ है तब से बीजिंग सरकार हम लोगों के आंदोलन के सिलसिले में ‘आतंकवाद’ और ‘आतंकवादी’ जैसे लेबल इस्तेमाल करने लगी है।

उन्होंने आगे कहा था, “हमारे शांतिपूर्ण आंदोलनों के खिलाफ अपने दमन के बारे में वह ‘वार आन टेरर’ (आतंकवाद के खिलाफ युद्ध) जैसे जुमले बोलने लगी है। ऐसे जुमलों से वे हमारे देश पर अपने गैर कानूनी कब्जे को वाजिब ठहराने और हमारे आजादी के आंदोलन को दुनिया में बदनाम करने की कोशिश में लगे हुए हैं।”

चीनी कब्जे वाले पूर्वी तुर्किस्तान को चीन सरकार ने नया नाम ‘शिंजियांग’ दिया है। चीन के धुर पूर्वी छोर पर बसे इस सेंट्रल एशियाई इलाके में 2 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं जो उइगुर जाति के हैं और मुस्लिम हैं।

चीन सरकार के साथ शांतिपूर्ण बातचीत का सवाल उठते ही उइगुर नेता बताते हैं कि चीन के कम्युनिस्ट नेताओं की कार्यशैली में ‘बातचीत’ का क्या मतलब होता है। वे बताते हैं कि 1949 में जब पूर्वी तुर्किस्तान पर कब्जा करने के लिए चेयरमैन माओ की कम्युनिस्ट सेना आई तब वहां के कबीलों ने हिंसक विरोध किया। तब माओ ने उन्हें मीठी जुबान में बातचीत का न्योता भेजा और उन्हें बीजिंग लाने के लिए निकटवर्ती सोवियत संघ शहर नोवोसिबिस्र्क में अपना एक विमान भी भेजा दिया।

अधिकांश उइगुर नेता उनकी इस चाल में आ गए, लेकिन विमान में सवार होने के बाद हवा में ही एक विस्फोट हुआ और चीन विरोधी उइगुर नेताओं की लगभग पूरी पीढ़ी झटके में खत्म हो गई।

दोलकुन इसा को दिए गए वीजा और मसूद अजहर के सवाल को मात्र भारत-चीन रिश्ते के संदर्भ में देखना काफी नहीं होगा। चीन पर नजर रखने वाले कई प्रेक्षकों को आशंका है कि चीन सरकार पाकिस्तानी आतंकवादियों का इस्तेमाल अब अपने देश की आजादी के लिए लड़ने वाले उइगुर नेताओं के सफाए के लिए भी कर सकती है, लेकिन धर्मशाला में होने वाला सम्मेलन यह भी संकेत देता है कि सात दशक से चीनी दादागीरी और अपमान को चुपचाप बर्दाश्त करने की भारतीय नीति अब एक नया मोड़ ले रही है।

चीन की जनता की नब्ज को समझने वाले नेताओं और संगठनों को भारत में आने की अनुमति देकर भारत सरकार ने चीन सरकार को यह संदेश दे दिया है कि चीन की दुखती रग को नई दिल्ली बहुत अच्छी तरह पहचान चुकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चीन मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं। ये इनके निजी विचार हैं)

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