अंगरखा पहनना सूफियों का प्रतीकात्मक ढंग है। अंगरखा पहनने का मतलब है, जब कोई व्यक्ति किसी सुखी व्यक्ति को पा जाता है, तो गुरु को पा जाता है, तो गुरु को ओढ़ ले। गुरु छा जाये सब तरफ से-अंगरखा पहनने का अर्थ है। रत्ती भी गुरु से खाली न रहे। रोआं भी गुरु से अनढका न रहे।
गुरु तुम्हारा आकाश हो जाए, अंगरखा हो जाये; वह तुम्हें घेर ले। तुम कहीं से खुले न रह जाओ। कहीं से अनढके न रह जाओ, कहीं से नग्न न रह जाओ। सब तरफ से गुरु तुम्हें घेर ले। तुम्हारे मन में जरा सी भी जगह न रह जाये, जो गुरु से खाली हो। सदगुरु को ओढ़ने का अर्थ है, अंगरखा ओढ़ लेना।
तो जब तुम्हें कोई सुखी आदमी मिल जाये, देर मत करना, उसे ओढ़ लेना। क्योंकि उसे ओढ़ते ही तुम बदलना शुरू हो जाओगे। लेकिन ओढ़ने में बड़ी कठिनाई है। तुम्हें मिटना पड़ेगा। अंगरखा बड़ा महंगा है। सस्ता होता तो बाजार से खरीद लेते।
अंगरखा बड़ा महंगा है क्योंकि गुरु को ओढ़ने से ज्यादा कठिन इस पृथ्वी पर और कोई बात नहीं। मरना भी आसान है। कम से कम तुम तो रहते हो! गुरु को ओढ़ने का अर्थ है: तुम बिलकुल बुझ गये; तुमने अपनी लकीर मिटा दी। अब गुरु है, तुम नहीं हो। तुम छाया की तरह हो। किसी की छाया की तरह होकर जीना शिष्यत्व है।
लेकिन किसी की छाया की तरह होकर जीना अति दुर्लभ, अति कठिन है। क्योंकि अहंकार इनकार करेगा। अहंकार मना करेगा। अहंकार पच्चीस तरकीबें और तर्क खोजेगा। अहंकार पहले तो यह कहेगा कि यह आदमी कहता है कि सुख को पा लिया, लेकिन पाया कि नहीं? क्या भरोसा, झूठ बोलता हो! क्या भरोसा, सिर्फ अंगरखा बेचने का रास्ता खोज रहा हो!
क्या भरोसा, धोखा हो! तो पहले तो मन खोजेगा कि कोई तरकीब मिल जाये जिससे सिद्ध हो जाये, कि यह आदमी परम सुखी नहीं है। तो झंझट मिटी; तो तुम अंगरखा ओढ़ने से बचे। तो शिष्य पहले तो यह कोशिश करता है कि गुरु गुरु नहीं है। यह बचने का सुगम उपाय है।
जैसे ही मन साफ हो जाता है कि गुरु गुरु नहीं है, तुम छूट गये। तुम्हारा अहंकार जी सकता है। इसलिए जिस गुरु के पास तुम्हारे अहंकार को तृप्त करने की व्यवस्था हो, थोड़े सचेत होना; क्योंकि तर्क तुम्हें ही पता नहीं है, दूसरी तरफ भी ज्ञात है। और आचरण को सुनियोजित कर लेना बड़ी सरल बात है। जो गुरु तुम्हारे तर्क के बाहर पड़ता हो, शायद वहां कोई क्रांति की संभावना है।