प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से आरक्षण पर दी गयी सफाई ने राजनीति में एक और बहस छेड़ दी है। देश की राजनीति मंडल और कंमडल की झोली से बाहर नहीं निकल पायी है। हलांकि इस दौरान आधुनिक भारतीय राजनीति ने लंबा मुकाम तय किया है। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर से बोई गई मंडल की फसल पहले से और अधिक संवृद्ध हुई है। अवसरवादी राजनीति अपने हिसाब से इसे काटती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से आरक्षण पर दी गयी सफाई ने राजनीति में एक और बहस छेड़ दी है। देश की राजनीति मंडल और कंमडल की झोली से बाहर नहीं निकल पायी है। हलांकि इस दौरान आधुनिक भारतीय राजनीति ने लंबा मुकाम तय किया है। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर से बोई गई मंडल की फसल पहले से और अधिक संवृद्ध हुई है। अवसरवादी राजनीति अपने हिसाब से इसे काटती है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर 125वीं जयंती पर नई दिल्ली में अंबेडकर स्मारक की आधारशिला रखते हुए हमारे प्रधानमंत्री की ओर से दिया गया बयान राजनीति से इतर नहीं है। इससे यह साफ हो गया है कि कम से वोट बैंक की राजनीति के मसले पर कांग्रेस और इतर राजनैतिक दलों की विचारधारा से भाजपा भी अलग नहीं है। वह भी सत्ता नहीं खोना चाहती है। उसे भी अपने वोट बैंक से अधिक लगाव है।
पीएम का बयान पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है। भाजपा आरक्षण को लेकर डरी और सहमी है। बिहार की हार से सबक लेते हुए पार्टी आगामी पांच राज्यों में होने वाले आम विधानसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहती, इसलिए दलितों और पिछड़ों को खुश करने के लिए यह बयान दिया गया है।
पीएम की ओर से दिए गए इस बयान का काई औचित्य नहीं था। अपनी बात रखने के लिए बाबा भीमराव अंबेडकर का पूरा जीवन दर्शन पड़ा था। लेकिन उन्होंने आरक्षण को ही क्यों मुख्य बिंदु बनाया। आरक्षण का मसला भाजपा आतंरिक द्वंद्व का परिणाम है।
भाजपा आरक्षण को लेकर संघ और खुद में आंतरिक रण लड़ती दिखती है। पीएम को भाजपा के साम्राज्य विस्तार की जहां चिंता है, वहीं संघ को उसके हिंदुत्व और अपनी विचारधारा की। सवाल उठता है कि बाबा साहब को दलितोंउत्थान के आसपास ही क्यों सीमित किया जाता है।
उन्हें सामाजिक संघर्ष के नायक के रूप में क्यों नहीं पेश किया जाता है? उनकी छवि को हमारी राजनीति ने एक निश्चित सीमा और जातीयता में क्यों बांध रखा है? उन्हें सार्वभौमिक क्यों नहीं माना जाता?
जब दलित और उनके विमर्श की बात आती है तभी बाबा साहब की याद आती है। तभी संविधान की याद आती है। यह राजनीति की गलत दिशा है। पीएम ने जिस वक्त आरक्षण की बात हो हवा दी है, उसका कोई मतलब नहीं था। जिस फोरम से यह बात उठाई गई, वहां इसकी काई जरूरत नहीं थी। देश में आरक्षण का मसला टकराव का स्थिति में आ गया है। एक जमात में आरक्षण समर्थ दूसरे में आरक्षण विरोधी और तीसरे में आरक्षण चाहने वाले हैं। सवाल ऐसी स्थिति में बात कैसे बनेगी।
हलांकि प्रधानमंत्री ने यह बात रखी कि अंबेडकर को सिर्फ दलितों का मसीहा कह कर उन्हें सीमाओं में नहीं कैद किया जा सकता है। जिस तरह दुनिया मार्टिन लूथर किंग को देखती है, उसी तरह बाबा को देखना चाहिए। बात बिल्कुल सच है लेकिन जब इस पर गौर किया जाए तब।
बाबा को राजनेताओं और कुछ संगठनों ने जेबी बना लिया है, जिससे समाज में विरोधाभास और आरक्षण को लेकर टकराव की स्थिति बनी है। अभी हरियाणा में जाट आरक्षण की आग शांत भी नहीं हुई है। जाट समुदाय ने फिर आंदोलन की राह पर है। आरक्षण की आग में हजारों करोड़ स्वाहा हो गए। पीएम के राज्य गुजरात में भी हार्दिक पटेल आरक्षण को लेकर मुखर है।
वहीं यूपी में अगड़ी जातियां भी आरक्षण को लेकर पिछले दिनों सूबे की राजधानी में प्रदर्शन किया। ऐसी स्थिति में जब यह मसला बेहद संवेदनशील बन गया है उस स्थित में स्वयं प्रधानमंत्री की ओर से इस पर बयानबाजी कहां तक उचित थी? दलितों और पिछड़ों को भरोसा दिलाने के लिए उन्होंने ने यहां तक कह दिया कि बाबा साहब खुद भी चले आएं तो भी अब आरक्षण खत्म नहीं हो सकता। आरक्षण आप से कोई छीन नहीं सकता, विरोधियों की ओर से झूठ फैलाया जा रहा है।
भाजपा शासित राज्यों में कोई कटौती नहीं की गई है। हमारे समझ में नहीं आता है जब पीएम संघ की ओर से उठाए गए आरक्षण के मसले पर बिहार चुनाव में यह सफाई दे चुके थे कि आरक्षण मेरे जीते जी नहीं खत्म होगा। उस स्थिति में उसकी पुनरावृत्ति करने की क्या आवश्यकता थी?
निश्चित तौर पर आरक्षण का होना नितांत आवश्यक है, लेकिन कब तक और क्यों? हम संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर से पिछले वर्ष दिए गय बयान को बिल्कुल सही मानते हैं। उन्होंने आरक्षण खत्म करने की कभी वकालत नहीं की थी। उन्होंने केवल अराजनैतिक समिति गठित कर आरक्षण की समीक्षा की बात कहीं थी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरक्षण ने सामाजिक रूप से पिछड़े दलितों और कमजोर वर्गों को नया मुकाम दिलाया है। लेकिन उसका लाभ आखिर किसे सबसे अधिक मिला है। क्या इसकी समीक्षा नहीं होनी चाहिए?
बाबा साहब क्या आरक्षण के आजीवन समर्थक थे? उन्होंने ने तो केवल दस सालों तक के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी, जिसे अनवरत जारी रखने के पक्ष में वे नहीं थे। देश में जब जातिय और आर्थिक गणना भारी मतैक्यता के बीच हो सकती है उस स्थिति में आरक्षण की समीक्षा क्यों नहीं हो सकती है।
आर्थिक और जातीय गणना को ही क्यों नहीं आरक्षण का आधार बनाया जाता है। सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण को अनिश्चित काल तक जारी रखना कहां की बुद्धिमानी होगी। देश को आजाद हुए 60 साल का वक्त गुजर गया है, ऐसे में हमने कभी आरक्षण नीति की समीक्षा की है? अगर नहीं तो क्यों?
आखिर हमें यह पता होना चाहिए कि वास्तव में इसका असली लोगों को लाभ मिल भी रहा है या नहीं या जो लोग आरक्षण को कायम रखने की बात कर रहे हैं। इन सारी सुविधाओं का लाभ वहीं तो नहींउठा रहे हैं। आरक्षण की राजनीति देश में खाई बढ़ा रही है। इस पर भाजपा हो या दूसरे दल, सभी राजनीति कर रहे हैं।
भाजपा अब अपने को अगड़ों के दायरे से निकाल कर एक अलग छवि पेश करना चाहती है। उसकी निगाह यूपी में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। राम मंदिर मसला गौण हो चला है, अब वह हिंदुत्व के बजाव राष्ट्रवाद की राजनीति करने लगी है।
रोहित वेमुला मुद्दे पर घिरने के बाद दलितों और पिछड़ों को खुश करने के लिए आरक्षण का हथियार उठाया है। निश्चित तौर पर इसकी समीक्षा होनी चाहिए। इस पर राजनीति बंद होनी चाहिए। संघ प्रमुख मोहन मागवत की बात पर विचार होना चाहिए। देश में आरक्षण पर समीक्षा की जरूरत है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)