क्रोध शब्द सुनते ही आंखों के समक्ष अग्नि का स्वरूप उत्पन्न हो जाता है। ऋषि-मुनियों व हमारे पूर्वजों के अनुभवों से यह सिद्ध हुआ है कि क्रोध एक ऐसी भीषण अग्नि है, जो हमारे मन को जलाकर जीवन के सार को नष्ट कर देती है। संसार में जितनी भी प्रकार की अग्नि हैं, वे मानव की अंतरात्मा या मन को नहीं जलाती, किंतु क्रोध एक ऐसी अग्नि है जो स्वयं व संसार दोनों को जलाकर खाक कर देती हैं।
मुर्दे को जब अग्नि पर लिटाया जाता है तो उसे अग्नि का दाह अनुभव नहीं होता, परंतु कितने आश्चर्य की बात है कि जीवित मनुष्य अपनी घोर अज्ञानता के कारण स्वयं को बार-बार क्रोध की चिता पर बैठकर जलाता है, क्रोध में स्वयं व दूसरों को दुखी करता है और फिर बड़े अभिमान से सभी को कहता है कि मैंने फलां-फलां मनुष्य का दिमाग ठिकाने लगा दिया, मैंने उसका अभिमान चकनाचूर कर दिया, मैंने उसके होश ही उड़ा दिए.आदि। ऐसी डींगें मारने वालों की बातों से इतना तो अवश्य सिद्ध होता हैं कि जो व्यक्ति क्रोध के वशीभूत होता है, उसका खुद का दिमाग ठिकाने नहीं रहता।
क्रोधावेश में कई बार लोग अपने कपड़ों को फाड़ने लगते हैं और बालों को नोंचने लगते हैं। अपने ऐसे व्यवहार के कारण बाद में वे स्वयं भी दुखी होते हैं और दूसरों को भी दुखी करते रहते हैं। इसलिए सर्वशक्तिमान परमात्मा कहते हैं कि अब इस क्रोध रूपी अग्नि को योग रूपी शीतल जल से शांत करो। इसी में हमारी और दूसरों की भलाई है। यदि हम सचमुच अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हैं तो हमें क्रोध की आग को बुझाकर प्रेम की गंगा बहानी चाहिए। ऐसा कहा गया है कि जो व्यक्ति दूसरों को कुछ दान करता है, उसे दानी कहा जाता है और जो व्यक्ति समझदार नहीं होता, उसे नादान कहा जाता है। दूसरी ओर परमात्मा कहते हैं कि जो व्यक्ति क्रोध का दान नहीं करता, वही सच्चे अर्थ में नादान है, इसलिए ऐसे व्यक्ति का कल्याण कभी संभव नहीं हो पाता।
यदि आप आत्मकल्याण चाहते हैं और अपने जीवन में सुख-शांति की कामना रखते हैं, तो क्रोध का दान दें और इस क्रोध रूपी ग्रहण से अपने आप को मुक्त करें।