जीवन को समुन्नत बनाने और सुधारने के लिए सत्संग मूलाधार है। जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में सत्संग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। सत्संग क्या है? इस संसार में तीन पदार्थ- ईश्वर, जीव और प्रकृति- सत हैं। इन तीनों के बारे में जहां अच्छी तरह से बताया जाए, उसे सत्संग कहते हैं।
श्रेष्ठ और सात्विक जनों का संग करना, उत्तम पुस्तकों का सत्संग, पवित्र और धार्मिक वातावरण का संग करना, यह सब सत्संग के अंतर्गत आता है। सत्संग हमारे जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि शरीर के लिए भोजन। भोजनादि से हम शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते हैं, किंतु आत्मा जो इस शरीर की मालिक है, उसकी संतुष्टि के लिए कुछ नहीं करते।
आत्मा का भोजन सत्संग, स्वाध्याय और संध्या है। सत्संग जीवन को निर्मल और पवित्र बनाता है। यह मन के बुरे विचारों व पापों को दूर करता है। भतृहरि ने जो लिखा है, उसका आशय है कि ‘सत्संगति मूर्खता को हर लेती है, वाणी में सत्यता का संचार करती है। दिशाओं में मान-सम्मान को बढ़ाती है, चित्त में प्रसन्नता को उत्पन्न करती है और दिशाओं में यश को विकीर्ण करती है। वस्तुत: सत्संगति मनुष्य का हर तरह से कल्याण करती है। जैसे चासनी के मैल को साफ करने के लिए कुछ मात्र में दूध डालते हैं, उसी तरह जीवन के दोषों को दूर करने के लिए सत्संग करते हैं।
प्रात:काल का भोजन सायंकाल तक और सायंकाल का भोजन रात्रिभर शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है। ऐसे ही सुबह किया हुआ सत्संग पूरे दिन हमें अधर्म और पाप से बचाए रखता है। सायंकाल का सत्संग हमें कुत्सित विचारों से बचाता है। मानव सत्संग से सुधरता है और कुसंग से बिगड़ता है। कहा भी गया है कि जैसा होगा संग वैसा चढ़ेगा रंग। सत्संग मानसिक समस्याओं की चिकित्सा है। जब मन में काम, क्रोध रूपी वासनाओं की आंधी उठे और ज्ञान रूपी दीपक बुझने लगे, तो ऐसे में सत्संग औषधि का कार्य करता है। विद्वानों का मानना है कि सत्संग से विवेक जाग्रत होता है। विवेक के जाग्रत होने पर ही यह जाना जा सकता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा? क्या नैतिक है और क्या अनैतिक?