कार्यक्रम का शुभारंभ संस्थान के निराला सभागार में मां सरस्वती की प्रतिमा एवं जयशंकर प्रसाद के चित्र पर माल्यार्पण कर हुआ। इस दौरानवाणी वन्दना एवं जयशंकर प्रसाद के गीत की प्रस्तुति कर प्रो. कमला श्रीवास्तव ने लोगों को भाव विभोर कर दिया।
संस्थान के निदेशक मनीष शुक्ल ने कहा कि जयशंकर प्रसाद सृजनकर्ता के रूप में सामने आते हैं। वे विराट व्यक्तित्व के धनी थे। वे वृहद समुद्र की भांति हैं। उनकी रचनाओं-कृतियों में अभी काफी खोज करना बाकी है। उन्होंने साहित्य जगत को बहुत बड़ा योगदान किया। वे आज भी हम सबके बीच प्रेरण स्त्रोत के रूप में जीवंत हैं।
इससे पहले संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह ने कहा कि देश में राष्ट्रवाद व लोकमंगल की भावना अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होती है। लोकमंगल की भावना वह भावना है जो सबका हित करे नहीं तो वह केवल स्वार्थ बनकर ही रह जाती है।
डा. रविकान्त ने कहा कि कविता, नाट्य साहित्य, कथा साहित्य में जयशंकर प्रसाद का महत्वपूर्ण स्थान है। वे स्वतंत्रता संग्राम के लेखक हैं। प्रसाद ने अपने साहित्य में लोक मंगल की भावना के लिए मनोभावों को समझने का प्रयास किया हैं। मनोभावों के विश्लेषण के बिना राष्ट्रीयता व लोकमंगल की भावना को पैदा किया जाना असंभव था।
शिकोहाबाद से आए डा. महेश आलोक ने कहा कि हिन्दी की बड़ी से बड़ी कविता में लोकमंगल की भावना रही है। लोकमंगल के बिना कविता लिख पाना संभव नहीं है। आनंद और लोकमंगल का सामांजस्य ही साहित्य का सृजन है। प्रसाद सर्जनात्मक के पक्षधर के साथ ही लोकमंगल की भावना के पक्षधर भी हैं।
इलाहाबाद से आए वरिष्ठ साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि आज की तरह जयशंकर प्रसाद के समय में भारतवर्ष की सबसे बड़ी चिंता राष्ट्रवाद की ही थी। प्रसाद उन्होंने अपनी रचनाओं में विभिन्न प्रकार से राष्ट्रवाद की व्याख्या की हैं। इस दौरान अनिल मिश्र, डा. अमिता दुबे व अन्य उपस्थित रहे।