दूसरों के प्रति समान भाव का उद्भव ही समत्व बुद्धि होना है। राग व द्वेष के कारण ही हम अपने से दूसरों को अलग समझने की नादानी करते हैं। ये राग-द्वेष ही काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को बढ़ाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि इन पांचों दोषों के कारण ही मानव में राग-द्वेष पनपते हैं। समत्व-बुद्धि का भाव योग का प्रथम सोपान है। कर्म योग की चर्चा में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझकर ही युद्ध में आरूढ़ होने से ही मनुष्य पाप का भागी नहीं बनेगा। इन विरोधाभासी स्थितियों में समभाव रखना चाहिए। सदाचरण के विरोधी इस समत्व से अपनी मनमर्जी करने में समर्थ हो सकते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय पराजय आदि को समान मानने की साधना इन्हें मूल्यों से रिक्त करने की साधना है। यह स्थिति राग और द्वेष के परित्याग के बिना पूरी नहीं की जा सकती। राग-द्वेष मन में बसे हुए हैं, यदि इनका परित्याग हो जाता है तो प्रत्यक्षत: मन का भी परिष्कार हो जाता है। यही वह साधना की सीढ़ी है जो साधक की जीवन दृष्टि को बदल देती है।
समत्व की साधना के द्वारा राग-द्वेष जैसे दोषों का क्षरण होने लगता है। अहंकार का भाव दुर्बल होता जाता है। परिणाम स्वरूप दूसरों के प्रति सहज रूप से समत्व भाव, करुणा और संवेदनशीलता की निष्पत्ति होने लगती है। समभाव की उत्पत्ति धार्मिक, नैतिक व राजनीतिक विधियों द्वारा भी संभव है, किंतु ऐसा समभाव निरोधात्मक है जो पुलिस व न्यायालयों के द्वारा की जाने वाली प्रक्त्रिया के तहत आता है। इसके बिल्कुल विपरीत साधना के द्वारा समत्व-योग के परिणाम व्यक्तित्व के रूपांतरण में सहायक होते हैं। वास्तव में वैदिक धर्म मन के परिष्कार पर बल देता है। अपरिष्कृत मन के द्वारा किया गया सदाचरण भी गीता केअनुसार पाखंड माना गया है। इसलिए मन के परिष्कार की साधना मानव में समत्व भाव का उदय कर सकेगी जिससे वास्तविक जीवन जीने की सहज अनुभूति होगी। जीवन की संपूर्णता के लिए समत्व योग की साधना प्रारंभिक सोपान है।