पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी अपनी एक किताब लेकर भारत को नसीहत दे रहे हैं। उनके दावे से लगता है कि भारत-पाकिस्तान समस्या का समाधान इस किताब में है। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझा रहे हैं कि उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के रास्ते पर चलना चाहिए।
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी अपनी एक किताब लेकर भारत को नसीहत दे रहे हैं। उनके दावे से लगता है कि भारत-पाकिस्तान समस्या का समाधान इस किताब में है। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझा रहे हैं कि उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के रास्ते पर चलना चाहिए।
कसूरी इस समय अपनी किताब भारत में बेचने का अभियान चला रहे हैं। अनेक शहरों में वह अपने शो कर चुके हैं, दोनों हाथों से किताब उठाकर वह इस अंदाज में प्रचार करते हैं, जैसे सीमा पर शांति का नुस्खा लेकर आए हैं। कसूरी को बताना चाहिए कि वर्ष 2002 से 2007 तक विदेश मंत्री रहते हुए वह क्या कर रहे थे।
वास्तविकता यह है पाकिस्तान का जन्म ही समस्या के रूप में हुआ था। जन्म लेते ही उसने भारत के खिलाफ कबायली आक्रमण कर दिया था। 1965 और 1971 में भी उसने हमला किया। लेकिन इन सभी में उसे शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके बाद उसने सीधी लड़ाई के बाद छद्म युद्ध का सहारा लिया।
वह आतंकवादी मुल्क है। सीमा पार से आतंकवादी गतिविधि संचालित करना उसकी फितरत है। पैदा होते ही कश्मीर पर उसने रोना शुरू किया था। यही उसकी नियति है। उसे सदैव रोना है। आतंकवाद की जड़ें वहां इतनी गहरी हैं कि उससे छुटकारा संभव नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच समस्या की जड़ ही यही है।
प्रश्न यह कि यह एक लाइन की बात खुर्शीद महमूद कुरैशी को समझ क्यों नहीं आ रही है? इसके लिए सैकड़ों पेज का गं्रथ लिखने की कोई जरूरत ही नहीं थी। समाधान के लिए पाकिस्तान को ही सोचना होगा। समस्या भारत की तरफ से नहीं है। पाकिस्तान कश्मीर और आतंकवाद का राग अलापना बंद कर दे तो समस्या का तत्काल समाधान हो सकता है।
कुरैशी खुद पाकिस्तानी शीर्ष व्यवस्था के नुमाइंदे रहे हैं। वह सैनिक तानाशाह परवेज मुशर्रफ के करीबी सहयोगी थे। उनकी सरकार में विदेश मंत्री थे। पहली बात यह कि मुशर्रफ के करीबियों में प्राय: सभी लोग एक जैसे थे। इन सबके भीतर कुछ और बाहर कुछ और होता था। आज कुरैशी कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान नीति का अनुसरण करना चाहिए। क्या कुरैशी में यह कहने का साहस है कि पाकिस्तान को संबंध सुधारने के लिए किस नीति का अनुसरण करना चाहिए?
कुरैशी के रहनुमा परवेज मुशर्रफ ने वाजपेयी की पाकिस्तान नीति के जवाब में क्या किया था। अमृतसर से लाहौर की बस यात्रा विदेश नीति का नायाब उदाहरण था। वाजपेयी की इस यात्रा में समाजसेवा, साहित्य, कला आदि क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोग शामिल थे। मुशर्रफ उस समय सेना प्रमुख थे। कसूरी जानते थे कि कितने विश्वासघाती तरीके से वाजपेयी की सौहार्दपूर्ण यात्रा का जवाब दिया जा रहा था। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लाहौर में वाजपेयी का स्वागत कर रहे थे, परवेज मुशर्रफ कारगिल में अवैध घुसपैठ करा रहे थे।
पाकिस्तान की यही नीति संबंध सुधारने में एकमात्र बाधा है। सुधार केवल यहीं होना है। ऐसा हो सके तो दोनों देशों के संबंध सामान्य होने में देर नहीं लगेगी। ऐसा नहीं कि सैनिक तानाशाह और राष्ट्रपति बनने के बाद परवेज के विचार बदल गए हों।
अटल सौहार्द की नीति पर चल रहे थे, परवेज अपनी धूर्तता छोड़ने को तैयार नहीं थे। करगिल के बाद भी अटल बिहारी ने उन्हें आगरा बुलाया था, लेकिन परवेज की हठधर्मिता से कोई सहमति नहीं बन सकी थी। परवेज के विदेश मंत्री कुरैशी थे। इस रूप में उनकी क्या भूमिका थी।
क्या वह कश्मीर के अलगाववादियों को लामबंद नहीं कर रहे थे, क्या वह आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर अमेरिका से रकम नहीं ऐंठते थे, लेकिन इधर आतंकवादी संगठनों को संरक्षण और प्रोत्साहन दे रहे थे। उसमें कसूरी का प्रमुख किरदार था। आज वह भारत को पाठ पढ़ा रहे हैं।
कसूरी को बताना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान नीति अटल की नीति से किस प्रकार भिन्न है। क्या मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण से पहले ही पाकिस्तान को दोस्ती का पैगाम नहीं दिया था, शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित करना भी लाहौर बस यात्रा जैसा ही प्रयास था। मोदी ने यह संदेश दिया था कि पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध रखना उनकी प्राथमिकता है। लेकिन फिर पाकिस्तान ने क्या किया।
नवाज शरीफ लौटे तो उनकी फजीहत होने लगी। सेना के इशारों पर पाकिस्तान का सीमा पार आतंकवाद जारी रहा। वह लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन करता रहा। यह आज तक जारी है। ऐसे में कुरैशी को यह बताना चाहिए कि सुधरने की जरूरत किसको है, कौन है जो आतंकवाद को प्रोत्साहन दे रहा है। जिस प्रकार लाहौर बस यात्रा के बाद अटल बिहारी ने परवेज मुशर्रफ को आगरा में दूसरा मौका दिया था, उसी प्रकार मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह के बाद नवाज शरीफ को दूसरा मौका ऊफा में दिया था। संघर्ष विराम के प्रति नवाज ने सहमति दी थी। सुरक्षा अधिकारियों की वार्ता शुरू करने का फैसला हुआ था। नवाज कश्मीर मामले को वार्ता से अलग रखने पर तैयार थे लेकिन पाकिस्तान ने फिर विश्वासघात किया।
जाहिर है, समाधान कसूरी की किताब में नहीं, प्रेम के केवल ढाई अक्षरों में समाहित है, इसे समझना होगा। यह बात पाकिस्तान को भी समझनी होगी। (आईएएनएस/आईपीएन)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)