संप्रति हम ऐसे आधुनिक युग में जी रहे हैं जहां एक तरफ भौतिक समृद्धि चरम पर है तो दूसरी तरफ चारित्रिक पतन की गहराई भी कम नहीं है। आधुनिकीकरण में उलझा मानव सफलता की नित नई परिभाषाएं खोजता रहता है और स्वयं की इच्छाओं के रेगिस्तान में भटकता रहता है। ऐसे समय में सच्ची सफलता और सच्ची सुख-शांति की प्यास से आकुल-व्याकुल हर व्यक्ति मृग-मरीचिका के समान भ्रमित होकर अनेक मनोरोगों का शिकार बनता जा रहा है। हममें से कितने लोगों को इस बात का ज्ञान है कि जीवन में सफलता प्राप्त करना और सफल जीवन जीना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। यह जरूरी नहीं कि जिसने अपने जीवन में साधारण कामनाओं को हासिल कर लिया हो वह पूर्णत: संतुष्ट और प्रसन्न ही हो। इसलिए हमें गंभीरतापूर्वक इस बात को समझना चाहिए कि इच्छित फल प्राप्त कर लेना ही सफलता नहीं है। जब तक हम अपने जीवन में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों को महत्व नहीं देंगे तब तक यथार्थ में सफलता पाना हमारे लिए मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव कार्य होगा। नैतिक मूल्यों के बगैर हासिल की गई सफलता केवल क्षणभंगुर सुख के समान होती है।
हमने सागर की गहराई में जाकर मोती खोजना तो सीख लिया है, किंतु अपने मन की गहराई में जाकर सुख-शांति को खोजना अब तब हम नहीं सीख सके हैं। कुछ लोगों का कहना है कि हम सफल नही हो सकते, क्योंकि हमारी तकदीर या परिस्थितियां ही ऐसी हैं, लेकिन यदि हम अपना ध्येय निश्चित कर उसे अपने मानस पटल में बसा लें तो फिर सफलता स्वयं ही हमारी ओर खिंची चली आएगी। सफल होना हर मनुष्य का अधिकार है, परंतु यदि हम अपनी असफलताओं के बारे में ही सोचते रहेंगे तो सफलता को कभी हासिल नहीं कर सकेंगे। कई बार प्रथम आघात में पत्थर नहीं टूट पाता। उस पत्थर को तोड़ने के लिए कई बार आघात करना पड़ता है। इसलिए सदैव अपने लक्ष्य को सामने रखकर आगे बढ़ते रहने की जरूरत है।