भगवान शंकर को हिंदू प्रथम, मध्य और अंतिम, सबकुछ मानते हैं। शिव ही है हिंदू धर्म का मूल और वही है धर्म का अंतिम सत्य। शिव से ही हिंदू और जैन की नाथ और विदेहियों की परंपरा की शुरुआत मानी गई है। शिव से ही ध्यान परंपरा का प्रारंभ होता है।
क्या हम ऐसा कहें कि 27 बुद्ध पुरुषों में पहले बुद्ध तो भगवान शिव थे और अंतिम सिद्धार्थ? या कि पहले भी शिव ही थे और अंतिम भी वही?
शिव और बौद्ध परम्परा में क्या समानताएं हैं? इस पर प्रोफेसर सीएस उपासक से विस्तृत चर्चा हुई। प्रोफेसर उपासक नवनालंदा महाविहार के निदेशक रह चुके हैं। 1957-1959 तक लंदन पर रहकर उन्होंने ए.एल. वैशम के निर्देशन में स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड स्टडीज से पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। प्रोफेसर उपासक के लगभग 12 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है। उनकी ‘हिस्ट्री ऑफ बुद्धिज्म इन अफगानिस्तान’ की खास चर्चा रही।
उन्होंने खरोष्ठी पर भी ग्रंथ लिखा है। विश्व के लगभग सभी देशों का भ्रमण कर हजारों शोध पत्र लिख चुके हैं। प्रोफेसर उपासक सन् 1947-1949 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता रह चुके हैं। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान 78 वर्षीय प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ही बुद्ध थे। उन्होंने इस संबंध में कुछ तर्प भी प्रस्तुत किए-
पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इनमें बुद्ध के तीन नाम अति प्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर। अन्य 24 बुद्धों के संबन्ध में अनेक विस्तृत चर्चा का उल्लेख मिलता है। 24वें बुद्ध सिद्धार्थ गौतम का वर्णन सबसे ज्यादा मिलता है। मनुष्य दस गुणों से संपन्न होता है, जो अन्य जीवों में विद्यमान नहीं हैं। ये गुण हैं- दान, शील, वीर्य, नैपम्य, अधिष्ठान, ध्यान, सत्य, मैत्री, समता भाव और प्रज्ञा।
जो इन गुणों की पराकाष्ठा को पार कर लेता है, ऐसे व्यक्तित्व को शास्त्राrय शैली में ‘बुद्ध’ कहा जाता है। प्रत्येक मनुष्य में ‘बुद्ध बीज’ है, लेकिन जिन्होंने दस पारमिताओं को प्राप्त किया हो, वही ‘बुद्धत्व’ को प्राप्त कर सकता है। प्रोफेसर उपासक के अनुसार शणंकर अर्थात शंकर भी बौद्ध परंपरा में एक ‘बुद्ध’ थे, जिन्होंने दसों पारमिताएं प्राप्त की थीं और शंकर सिद्धार्थ गौतम के अतिरिक्त ऐसे बुद्ध हैं, जिनका ज्ञान और प्रभाव आधुनिक भारत के लोगों में देखने को मिलता है। शंकर के जो अन्य नाम हैं, वे भी उनके ‘बुद्ध’ होने की ओर संकेत करते हैं। शंकर को मृत्युंजय महादेव कहा जाता है। अर्थात जिसने मृत्यु को ‘जीतकर’ ‘अर्हत्व’ प्राप्त कर लिया हो, इसलिए उन्हें जो हर-हर महादेव कहा जाता है, वह मूलत अर्हत्व का ही द्योतक है।
बौद्ध शास्त्राsं में ऐसी परंपरा है कि ‘मार विजय’ होने पर ही संबोधि प्राप्त होती है। सिद्धार्थ गौतम ने बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा को ‘मार विजय’ प्राप्त की थी और ‘बुद्ध’ कहलाए। इसी प्रकार शंकर को मारकण्डेय महादेव कहा जाता है। अर्थात जिसके जीवन में ‘मारकाण्ड’ संबद्ध है। शंकर को स्वयंभू नाथ (शम्भुनाथ) भी कहा जाता है। ऐसी शास्त्राrय मान्यता है कि बुद्ध किसी का शिष्यत्व ग्रहण न कर स्वयं बुद्ध होता है, इसी कारण उसे भी ‘स्वयंभू’ अर्थात स्वयं बुद्ध होने के शब्द से अलंकृत किया जाता है।
जब कभी शंकर की बात की जाती है, तब लोग परंपरा से ‘बम-बम बोल’ का उच्चारण करते हैं। अर्थात ‘बम-बम बोल’ का तात्पर्य ‘धम-धम बोल’ से है।
शंकर को परम ध्यानी कहा गया है। हिमालय में उन्होंने तपस्या की थी, उनकी शक्ति को ‘पार्वती’ कहा गया है। शंकर को तीन नेत्रधारी कहा गया है। तीसरा नेत्र उनका ‘बोधिनेत्र’ है, जिसके माध्यम से उन्होंने संसार की अनित्यता का साक्षात अनुभव किया।
यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म किया था। स्पष्टत परम योगी में कामतृष्णा का नितान्त अभाव हो जाता है, यही उपरोक्त कथा को दर्शाता है। शंकर को ‘त्रिशूलधारी’ कहा जाता है। यह ‘तिरत्न’ अर्थात बुद्ध, धर्म-संघ का प्रतीक है, जिसे शंकर सदैव अपने साथ रखते हैं। ऐसी मान्यता है कि शंकर की सवारी बैल है। स्पष्टत यह इस बात की ओर इंगित करता है कि शंकर जैसे व्यक्तित्व में जो पाशविक प्रवृत्तियां थीं, उन पर उन्होंने पूर्णरूप से अधिकार प्राप्त कर लिया था। बैल पर सवारी का तात्पर्य यही है कि वह पूर्ण रूप से मनुष्य थे, जिसने दसों पारमिताओं को प्राप्त कर लिया था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शंकर ने संसार के विष का पान कर लिया था, लेकिन वह कंठ तक ही रह गया। इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भी सांसारिक दुष्प्रवृत्तियां हैं, उन्हें शंकर ने कभी ग्रहण नहीं किया। वह परम शुद्ध थे। सबके लिए कल्याणकारी थे। शंकर के गले में सर्प लिपटा रहता है, किन्तु वह उनका अनिष्ट नहीं कर पाता। यहां सर्प भी संसार की दुष्प्रवृत्तियों का प्रतीक है, जिससे शंकर विचलित नहीं हुए।
यह भी कहा जाता है कि शंकर नरमुण्ड की माला पहनते हैं।
वास्तव में यह बुद्ध के अनित्यवाद का प्रतीक है। शंकर के विषय में ऐसी भी परिकल्पना है कि उनके सिर पर चंद्रमा विराजमान है तथा सिर से ही गंगा निकली होती है।
यह शंकर के शांत और शीतल हृदय का प्रतीक है। यह भी उनके ‘बुद्ध’ होने का प्रमाण है। काशी को ‘शिव धाम’ कहा गया है। संभवत जिस प्रकार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने काशी आकर सारनाथ से अपने धर्म का प्रवर्तन किया, उसी प्रकार शंकर का भी ‘धर्म पा प्रवर्तन’ काशी से ही प्रारंभ हुआ हो, इसीलिए काशी को शंकर की नगरी कहा जाता है। शिव का प्रतीक लिंग के रूप में माना जाता है, जो संभवत उनकी ‘वीर्य’ पारमिता का द्योतक है। इस पारमिता को शायद सबसे पहले उन्होंने प्राप्त किया हो। शंकर के साथ भूत-प्रेत भी रहते हैं। यह बताता है कि उनका धर्म प्रचार इतना व्यापक था कि अमानवीय तत्व भी उनसे प्रभावित हुए हों। प्रोफेसर उपासक का कहना है कि शंकर और बुद्ध पर नए सिरे से अध्ययन की जरूरत है। शताब्दियों से अनेक अवधारणाओं, विवेचनाओं तथा शैव मतान्तरों के अनेक दृष्टिकोण मिलते हैं। हमें पुन इन तथ्यों को ध्यान में रखकर पुनरावलोकन करना होगा।