भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा और हिन्दी भाषा को लेकर कुछ तथाकथित बुद्घिजीवियों द्वारा भम्र की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। सच तो यह है कि हिन्दी भारत की आत्मा, श्रद्घा, आस्था, निष्ठा, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हुई है। हिन्दी के अब तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाने के कारणों के बारे में सामान्यत: आम भारतीय की सहज समझ यही होगी कि दक्षिण भारतीय नेताओं के विरोध के चलते ही हिन्दी देश की प्रतिनिधि भाषा होने के बावजूद राष्ट्रभाषा के रूप में अपना वाजिब हक नहीं प्राप्त कर सकी, जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है।
मौजूदा समय में विस्तार, प्रसार और प्रभावी बाजारू उपस्थिति को देखते हुए ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जिसके आधार पर कहा जा सके कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं होना चाहिए, सिवाय राजनीतिक कुचक्र के। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप मे राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिलने के पीछे भी इसी तरह के सोच वाले नेताओं की प्रमुख भूमिका रही है। दुर्भाग्यवश उसी मानसिकता के लोगों का बाहुल्य आज भी कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक निर्णायक स्थिति में है। बोली की दृष्टि से संसार में सबसे दूसरी बड़ी बोली हिन्दी है। पहली बड़ी बोली मंदारिन है जिसका प्रभाव दक्षिण चीन के ही इलाके में सीमित है चूंकि उसका जनघनत्व और जनबल बहुत है। इस नाते वह संसार के सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है पर आंचलिक ही है। जबकि हिन्दी का विस्तार भारत के अलावा लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर फैला हुआ है। उसमें विज्ञान तकनीक और श्रेष्ठतम आदर्शवादी साहित्य की रचना कितनी होती है। साथ ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस भाषा के बोलने वाले लोगों का आत्मबल कितना महान है। लेकिन दुर्भाग्य है इस भारत का कि प्रो़ एम़ एम. जोशी के शोधग्रंथ के बाद भौतिक विज्ञान में एक भी दरजेदार शोधग्रंथ हिन्दी में नहीं प्रकाशित हुआ। जबकि हास्यास्पद बात तो यह है कि अब संस्कृत के शोधग्रंथ भी देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में प्रस्तुत हो रहे है।
भारत में पढ़े लिखे समाज में हिन्दी बोलना दोयम दर्जे की बात हो गयी है और तो और सरकार का राजभाषा विभाग भी हिन्दी को अनुवाद की भाषा मानता है। संसार के अनेक देश जिनके पास लीपि के नाम पर केवल चित्रातक विधिया है वह भी विश्व में बड़ी शान से खडे है जैसे जापानी, चीनी, कोरियन, मंगोलिन इत्यादि, तीसरी दुनिया में छोटे-छोटे देश भी अपनी मूल भाषा से विकासशील देशों में प्रथम पक्ति में खड़े हैं इन देशों में वास्निया, आस्टे्रलिया, वुल्गारिया, डेनमार्क, पूर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, वेलजियम, क्रोएशिया, फिनलैण्ड फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पोलैण्ड और स्वीडन इत्यादि प्रमुख हैं।
भारत में अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को विस्थापित करना यह केवल दिवास्वप्न है क्योंकि भारतीय फिल्मों और कला ने हिन्दी को ग्लोबल बना दिया है और भारत दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के नाते भी विश्व वाणिज्य की सभी संस्थाएं हिन्दी के प्रयोग को अपरिहार्य मान रही हैं। केवल हीन भाव के कारण हम अपने को दोयम दर्जे का समझ रहे हैं वरना आज के इस वैज्ञानिक युग में भी संस्कृत का भाषा विज्ञान कम्प्यूटर के लिए सवार्ेत्तम पाया गया है।
कुछ वर्ष पहले देश के एक उच्च न्यायालय ने चर्चित फैसला सुनाया था जिसके अनुसार हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा नहीं सिर्फ राजभाषा बताया गया था। आजादी के लगभग सात दशक बाद भी राष्ट्रभाषा का नहीं होना दुखद है। 10 सितंबर से 13 सितंबर तक भोपाल मे आयोजित हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान विद्वानों को अन्य ज्वलंत मुद्दों के साथ इन पर भी विचार करना चाहिए। हिन्दी को लेकर कार्यपालिका और प्रभावी ताकतों की सोच को कैसे बदला जाए कि वे उसे मौलिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिए प्रभावी और सर्वसम्मत नीति बनाए।
लेखक-माखनलाल चतुर्वेदी ,राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्राध्यापक हैं।