सृष्टि के आरम्भ में संपूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष शैया पर विराजते योगनिद्रा में लीन थे। सृजन का समय आने पर कालशक्ति ने भगवान नारायण को जगाया।
उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय होकर उस अपार जलराशि को प्रकाशित करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा को भगवान ने जगत की रचना के लिए आदेश दिया।
“ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अतरि, मुख से अंगिरा, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से विशष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, देह से समुद्र, निऋति आदि और छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये।
इस प्रकार यह जगत ब्रह्मा के मन और शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा की कन्या सरस्वती अत्यन्त लावण्यमयी थीं। ब्रह्मा उस कन्या को देख कर आसक्त हो उठे। इस पर ब्रह्मा को उनके पुत्रों ने समझाया कि यह अधर्मपूर्ण है। इस पर ब्रह्मा ने लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके निष्प्राण शरीर को दिशाओं ने कोहरे और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।