डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
समाज शब्द तो बहुत प्राचीन है, लेकिन उदारीकरण के दौर में ‘सिविल सोसायटी’ शब्द चर्चा में आया है। वैश्वीकरण व उदारीकरण की अवधारणा करीब चार शताब्दी पुरानी है, मगर प्राचीन भारतीय उदार शब्द का अनुवाद लिबरल नहीं हो सकता। फिर भी इस पर चर्चा आज जरूरी है। इसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता को बहुत महत्व दिया जाता है।
यह प्राचीन क्रिश्चियन व्यवस्था की प्रतिक्रिया मंे उठा था। इसके पहले चर्च का प्रभुत्व था, सत्ता के साथ ही सभी सामाजिक अंग उसके आधीन थे। शिक्षा भी चर्च के अधीन थी। इसीलिए शिक्षण संस्थाओं में चर्च अनिवार्य थी। अर्थव्यवस्था भी उसी से संचालित थी।
आधुनिक जीवन शैली ने इन बातों को नकारा। इसका संबंध ईसाई व्यवस्था से असहमति दर्ज करने से था। राजसत्ता को धर्मसत्ता से मुक्त करने को ‘सेक्युलरिज्म’ कहा गया। यही उदारवाद है। इसका हिंदू व इस्लाम से कोई संबंध नहीं था। यही व्यक्तिवाद बना। व्यक्ति नियंत्रण मुक्त माना गया। इसे मास्टरलेस मैन कहा गया।
संसार का मालिक परमसत्ता नहीं, व्यक्ति स्वयं निर्णयकर्ता है। यही उदारवाद आज प्रचलित है। मानव जीवन के दो हिस्से हुए- एक लौकिक दूसरा पारलौकिक। इसका असर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी मामलों में दिखने लगा। विवाह को भी अनुबंध मान लिया। यह भी कि लिव इन रिलेशनशिप पापपूर्ण संबंध है। लेकिन आज इसे कोर्ट भी सही मानता है।
आज आर्थिक क्षेत्र में मुनाफा सर्वोच्च हो गया। नैतिकता का कोई महत्व नहीं। राजनीति सत्ता प्राप्त करने का साधन बन गया। इसी प्रवृत्ति को बदलने की जरूरत है। नैतिक मार्ग पर चलने के लिए सबसे पहले परमसत्ता का भय होना चाहिए। विधि से बचने के उपाय तो निकल सकते हैं। पकड़े गए तो अपराधी, बच गए तो निर्दोष, जबकि धर्म का आत्मनियंत्रण व्यक्ति को सन्मार्ग पर चलाता है। वैश्वीकरण अमेरिका की संस्कृति का वैश्विक प्रचार कर रहा है। इससे बचने की आवश्यकता है। संस्थाओं का स्वरूप भी बदलना होगा।
देश और काल का अंतर एक ही शब्द के भाव को बदल देता है। प्राचीन भारत में भी उदार शब्द था। तब इसका अर्थ हृदय की ऐसी उदारता से संबंधित था, जिसमें निजी स्वार्थ नहीं, वरन वसुधा को कुटुम्ब मानने का भाव था। इसमें उपभोगवाद नहीं था। पश्चिमी जगत ने जिस उदारता पर बल दिया, उसमें केवल व्यक्ति का महत्व था। उसी का हित चिंतन था। अधिक से अधिक उपभोग ही उसका लक्ष्य माना गया। वह अपने बारे में निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र था। उसके ऊपर धर्म सत्ता का कोई निर्णय नहीं था।
इसी विचार पर उदारीकरण की आधुनिक व्यवस्था आधारित है। इसने वैश्विक स्तर पर मानव की जीवन शैली को ही बदल दिया। समाज, परिवार, शिक्षा, अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्र में बदलाव आ गया। व्यक्ति केंद्र में आ गया तो समाज का हित पीछे हो गया। परिवार के रिश्ते भी अनुबंध पर संचालित होने लगे। पहले माना जाता था कि पति-पत्नी के रिश्ते ऊपर बनते हैं, पृथ्वी पर केवल उसका पालन होता है। व्यक्ति महत्वपूर्ण हुआ, तो वह ही रिश्तों का निर्णायक होने लगा। विवाह अनुबंध बन गए। उसका पालन हुआ तो ठीक, उल्लंघन हुआ तो अलगाव। लिव इन रिलेशनशिप को पापपूर्ण माना जाता था, वहीं आधुनिक फैशन की पहचान बन गया। यहां तक कि नियमों व कानूनों के आधार पर न्यायपालिका भी उसे सही मानने लगी।
शिक्षा में नैतिकता का पक्ष महत्वहीन हो गया, जो शिक्षा पद और धन तक पहुंचाने में सहायक हो, वही ठीक। पहले शिक्षण संस्थाओं का भी एक खास स्वरूप होता था। जिस प्रकार पूजा स्थलों का अलग स्वरूप होता था। वैसे ही विद्यालय भवन का भी ढांचा अलग तरह का होता था। यह तकनीक भावनात्मक माहौल बनाने में अ²श्य रूप में सहायक होती थी। उदारीकरण और वैश्वीकरण ने इसमें भी बदलाव कर दिया। अब भव्य और कापोर्रेट भवनों की भांति स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बनने लगे। इसकी होड़ शुरू हो गई।
पहले शिक्षण संस्थाएं तीन आधार पर निर्मित होती थीं। एक, सरकार द्वारा स्थापित। दूसरा कोई परोपकारी सेठ धनाढ्य अपनी संपत्ति का दान कर शिक्षण संस्थाओं का निर्माण कराता था। तीसरा कोई कर्मयोगी समाज से धन मांग-मांग कर शिक्षण संस्थाएं बनवाता था। ये गुजरे जमाने की बात हुई।
अब अवैध संपत्ति खपाने के लिए भी भव्य शिक्षण संस्थाएं बन रही हैं। इसके निमार्ताओं में नेता व कापोर्रेट घराने समान रूप से शामिल हैं।
इसी उदारीकरण ने जैसा समाज बनाया, वैसी ही सोसायटी बनने लगी। शिक्षा, जाति, सेवा, गांव, शहर, पर्यावरण प्रकृति आदि अनेक विषयों से संबंधित सिविल सोसायटी बन गई। एनजीओ बने। स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर तक के एनजीओ बन गए। कुछ अच्छे हैं, तो निहित स्वार्थो से प्रेरित एनजीओ भी बने।
ये समाज और सत्ता दोनों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। कई बार विदेशी इशारों पर चलने वाले संगठन जनजागरूकता का लबादा ओढ़कर काम करते हैं। भारत में ही पोस्को परियोजना के विरोधियों को अमेरिका, वेदांता परियोजना के विरोधियों को ब्रिटेन से बड़ी आर्थिक सहायता मिलती रही है।
दंगों की सहायता के नाम पर बने तीस्ता के संगठन का असली चेहरा भी सामने आ रहा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन में भी विदेशी हाथ के आरोप थे। कुडनकुलम, जैतपुर, चुटका महान, फतेहाबाद, कोबाड, कैगा, रावतभाटा मुंदरा, कोरबा, रायगढ़ सभी जगह विकास विरोध संगठन सक्रिय रहे हैं। मानवाधिकार भी वैश्विक मुद्दा बनने लगा, लेकिन इसमें भी समान रुख नहीं अपनाया जाता।
जाहिर है कि समस्या की जड़ उदारवाद के संकुचित भाव के कारण है। इसी ने पर्यावरण, मानवाधिकार, नैतिकता आदि से संबंधित समस्याएं बढ़ाई हैं। उदार चरित्र के प्राचीन भाव को अपनाकर ही इनका समाधान किया जा सकता है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)