वनों पर सरकारी हस्तक्षेप बढ़ते चले जाने से उत्तराखण्ड की परम्परागत जीवनशैली का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। सदियों से इन्हीं वनों, चारागाहों, नदियों से आजीविका चला रहे स्थानीय जनों के व्यवसाय समाप्तप्राय हैं, रही-सही कसर सरकार की नई योजनाओं ने पूरी कर दी है। जिनके अन्तर्गत लोगों की वनों पर निर्भरता समाप्त कर उन्हें वैकल्किप हुनर सिखाने और अपनी धरती से पलायन के लिये मजबूर किया जा रहा है। ‘इको डेवेलपमेंट परियोजना’ नाम की इस योजना में संरक्षित क्षेत्रों के आस-पास बसे लोगों को जो हुनर सिखाए जा रहे हैं, या जो सामग्री बाँटी जा रही है, वह न यहाँ की स्थानीय जरूरतों के अनुरूप है न इस हुनर के जरिए उनका जीवनस्तर उठने की कोई गारंटी है।
आजादी के बाद तो ऐसे वनों का क्षेत्रफल सरकार तेजी से बढ़ाती गई। ऐसे वन क्षेत्र वनों को बचाने के नाम पर बनाए गए लेकिन वन बचाने से अधिक चिन्ता सरकार को वन उत्पादों से राजस्व प्राप्त करने की रही। सरकार ने वनों को बचाने के लिये स्थानीय लोगों के अनुभवों और प्रयोगों को कोई स्थान नहीं दिया। जो उन्होंने सदियों इन वनों के साथ रह कर अर्जित किये थे।
उत्तराखण्ड का आम जन-जीवन वनों के बीच में रह कर ही विकसित हुआ। जनसंख्या बढ़ते जाने के साथ वनों पर दबाव अवश्य बढ़ा है लेकिन ग्रामीणों ने अपनी आवश्यकताओं और दबाव के बीच सन्तुलन बनाने की विधा बहुत पहले सीख ली थी। यहाँ मौजूद, देवी-देवताओं को वन अर्पित कर देने की परम्परा इसी सन्तुलन को बनाए रखने के लिये अस्तित्व में आई। ग्रामीण ऐसे वनों को आवश्यकता के अनुसार 5-10 वर्ष के बाद खोल भी दिया करते थे।
प्राचीन काल में वनों पर राजा का नियंत्रण नहीं होता था, पिथौरागढ़ के वयोवृद्ध वकील रामदत्त चिलकोटी कहते हैं कि वन राजा के अधीन नहीं होते थे इसलिये वनवास दिया जाता था, अंग्रेजों के शासन काल में जब पहले पहल यहाँ के वनों पर सरकारी नियंत्रण शुरू हुआ तब ऐसे वनों का क्षेत्रफल बहुत कम रखा गया। इसलिये यहाँ मौजूद वनों के व्यापक क्षेत्रफल के कारण यहाँ की वनों पर आधारित अर्थव्यवस्था पर खास असर नहीं पड़ा लेकिन धीरे-धीरे सरकार इन वनों की सीमा बढ़ाती रही। आजादी के बाद तो ऐसे वनों का क्षेत्रफल सरकार तेजी से बढ़ाती गई। ऐसे वन क्षेत्र वनों को बचाने के नाम पर बनाए गए लेकिन वन बचाने से अधिक चिन्ता सरकार को वन उत्पादों से राजस्व प्राप्त करने की रही। सरकार ने वनों को बचाने के लिये स्थानीय लोगों के अनुभवों और प्रयोगों को कोई स्थान नहीं दिया। जो उन्होंने सदियों इन वनों के साथ रह कर अर्जित किये थे।
जब से विश्व में पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता बढ़ने लगी वनों पर सरकारी नियंत्रण अधिक मजबूत करने के लिये वनों को नेशनल पार्क, अभयारण्यों के नाम पर संरक्षित किया जाने लगा।
इन योजनाओं के तहत स्थानीय लोगों के सदियों से चले आ रहे हक-हकूक समाप्त कर दिये गए। उनका इन क्षेत्रों में प्रवेश अपराध घोषित कर दिया गया। ऐसे संरक्षित क्षेत्र बनाने के लिये जो नोटिफकेशन जारी किये गए उनसे ग्रामीणों को अनभिज्ञ रखा गया। ग्रामीणों को इन क्षेत्रों में उनके हक-हकूकों पर पड़ने वाले प्रभावों की पूरी जानकारी देने के बजाय लालच दिये गए। इसका परिणाम यह हुआ कि वन्य जीवों और वनस्पतियों को संरक्षित करने का यह महत्त्वपूर्ण कार्य वन विभाग और स्थानीय लोगों के बीच बैर-भाव का कारण बना और इससे स्थानीय लोगों में वनों के प्रति परम्परागत स्वाभाविक प्रेम, गुस्से में बदलने लगा।
उत्तराखण्ड के इन संरक्षित वन क्षेत्रों को यदि इस नजर से देखा जाय कि-इस प्रकृति पर जितना अधिकार मानव का है उतना ही पेड़ पौधों, वनस्पतियों और वन्य जीवों का भी है। प्रकृति को आज तक जितनी क्षति पहुँची है, उसका जिम्मेदार मनुष्य है। वनस्पतियों या वन्य जीव नहीं। इसलिये इस धरती का कुछ हिस्सा तो ऐसा हो जिसमें वनस्पतियों और वन्य जीव बेखटके जी सकें और मानव अपने हक-हकूक बन्द हो जाने के रूप में प्रकृति से की गई छेड़छाड़ का प्रायश्चित कर सकें। इस आदर्शवादी दर्शन पर यह सवाल उठने लगेंगे कि प्रकृति को जिसने क्षति पहुँचाई है वही भरपाई भी करें। कोई और इसका दंड क्यों भुगते। यह बात उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में व्यावहारिक भी है। पूरे देश में यदि वनों का क्षेत्रफल घटा है और उत्तराखण्ड देश के मैदानी हिस्सों को साफ हवा और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर रहा है तो इसके क्षतिपूर्ति के रूप में यह क्षेत्र कुछ-न-कुछ जरूर अदा करें। जरूरी नहीं है कि यह नकद के रूप में हो और ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं कि वनों पर उनकी निर्भरता समाप्त कर उन्हें पलायन के लिये मजबूर कर अपनी धरती, संस्कृति, समाज से काट देने की साजिश रचने वाली इको डेवलपमेंट परियोजना।
नैनीताल समाचार से साभार