जीवन एक यात्रा है। शरीर का अंत हो जाता है, लेकिन आत्म तत्व का नहीं। आत्म तत्व प्रत्येक जन्म में अपनी यात्रा करता है। नई काया, नए माता-पिता, नई जगह व नए नाम और पूर्व संस्कारों से प्राप्त कुछ विकारों को लेकर इस आत्म तत्व की यात्रा चलती रहती है। कुछ गुण तो कुछ दुर्गुणों की मिलावट के साथ एक नई यात्रा पुन: प्रारंभ होती है। इस संपूर्ण यात्रा में हमारा ध्येय कर्म करना है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि यह विश्व कर्म प्रधान है, इसलिए मनुष्य को कर्म करना ही है।
समस्त शारीरिक व मानसिक कर्मो के अच्छे-बुरे स्वरूप के कारण हमें शुभ व अशुभ कर्मो का फल भोगना ही होगा। प्रायश्चित करने से और कभी भी पुन:पाप न करने की दृढ़ता पर अडिग रहने से आप कर्म फल के नकारात्मक प्रभावों से बच सकते हैं। कर्म का फल अवश्य मिलता है, भले ही देर से मिले। जिस अनुपात में हम जैसा भी कर्म करते हैं, उसी अनुपात में हमें फल भी मिलता है। पूर्वकृत कर्म पीछा नहीं छोड़ते। हमें किसी न किसी जन्म में इन्हें भोगना ही पड़ेगा। अपने कर्मो से ही मनुष्य उठता है और गिरता भी है। हम बचपन से सुनते आए हैं, बोया पेड़ बबूल का, आम कैसे होय। फिर भी मानव अगर प्रयत्न करे, तो वह अशुभ कर्मो से बच सकता है। ईश्वर से प्रार्थना कर वह अशुभ कर्मो से बचने का प्रयत्न कर सकता है। वेदों का एक प्रमुख सार-तत्व है, हे ईश्वर हमें सब बुराइयों से दूर कर अच्छाइयों की ओर प्रवृत्त करो। संसार रूपी कर्मभूमि में हम सदैव अच्छे कर्मो को करने का प्रयास करें। हम जब बारंबार प्रार्थना करेंगे व शुभ कर्मो को करने के लिए दृढ़ संकल्पित होंगे, तो ईश्वर हमारा साथ अवश्य देगा इस स्थिति में हम शुभ कर्म करेंगे। जब हम शुभ कर्म करेंगे तो फल भी हमें शुभ ही मिलेगा। जब हम अपनी इस जीवन यात्रा को समाप्त कर संसार से विदा लेंगे, तब हमारे साथ कुछ न होगा। यदि कुछ होगा भी तो वे हमारे भले व बुरे कर्म ही होंगे, जिनका फल हमें निश्चित रूप से भोगना पड़ेगा।