आंध्र प्रदेश के पुष्करम महोत्सव ने हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है। गोदावरी नदी पर 12 साल लगने वाले इस धार्मिक महोत्सव में भगदड़ मचने से 27 से अधिक लोगों की मौत हो गई। यह हादसा उस दौरान हुआ, जब वहां खुद राज्य के मख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू मौजूद थे। मरने वालों में सबसे ज्यादा महिलाएं हैं।
हालांकि यह पता नहीं चल सका कि वास्तव में भगदड़ क्यों मची। लेकिन यह बात सामने आई है कि लोगों की मौत दम घुटने से हुई।
धर्म और आस्था पर अटूट विश्वास रखने वाले हमारे देश के लिए यह घटना कोई नई नहीं है। अब तक इस तरह की कई घटनाएं हो चुकी हैं। 2015 में धार्मिक नगरी प्रयोग में महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद में रेलवे ओवरब्रिज ढहने से 35 से अधिक लोग मारे गए थे। हादसे के बाद प्रदेश और रेल मंत्रालय इसकी जिम्मेदारी एक दूसरे पर थोपता रहा।
सवाल उठता है कि आखिर यह सिलसिला कब थमेगा? धार्मिक और भीड़-भाड़ वाले आयोजन हमारे लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। धार्मिक उत्सवों में भीड़ को नियंत्रित करने का हमारे पास कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है। देश में आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, जिसमें दर्जनों बेगुनाहों की जान चली जाती है।
सरकार की ओर से लोगों को मुआवजा देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है, लेकिन सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान फिर इस ओर से हट जाता है। यहीं लापरवाही हमें दोबारा दूसरे हादसों के लिए जिम्मेदार बनाती है।
आखिरकार सवाल उठता है कि धार्मिक उत्सवों और आयोजनों में ही क्यों भगदड़ मचती है? क्यों निर्दोष लोग मारे जाते हैं? इस तरह के हादसे कई परिवारों को ऐसे मोड़ ला खड़ा करते हैं जहां से वे पुन: अपनी दुनिया में नहीं लौट पाते हैं।
अकारण की परिवार का मुखिया, बेटी, पत्नी, मां, या पिता, बेटा शिकार हो जाता है। जिन पर पूरी जिंदगी के सपने टिके होते हैं वह पलभर में बिखर जाते हैं। यहां धर्म के नाम पर लोगों जरुरत से अधिक छूट मिल जाती है। इसे राजनीति का मसला भी बना लिया जाता है। जिहाजा, आयोजन स्थलों पर सुरक्षा और संरक्षा को लेकर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। भीड़ बढ़ती जाती है। बाद में किसी की ओर से अफवाहें उड़ा दी जाती हैं, जिससे भगदड़ मचने से लोगों की जान चली जाती है।
आपको याद होगा इससे पहले पटना में दशहरा उत्सव के दौरान मची भगदड़ में 33 बेगुनाहों की मौत हो गई थी। यह हादसे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और उसकी कार्य क्षमता पर भी सवाल खड़े करने वाले हैं।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, देश में 79 फीसदी हादसे धार्मिक अयोजनों मंे मची भगदड़ और अफवाहों से होते हैं। 15 राज्यों में पांच दशकों में 34 से अधिक घटनाएं हुई हैं, जिनमें हजरों लोगों को जान गंवानी पड़ी है।
जहां अधिक भीड़ जुटती है, वहां 18 फीसदी घटनाएं भगदड़ से हुई हैं। तीसरे पायदान पर राजनैतिक आयाजेन हैं जहां भगदड़ और अव्वस्था से तीन फीसदी लोगों की जान जाती है।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, देश में 2000 से 2012 तक भगदड़ में 1823 लोगों जान गंवानी पड़ी हैं। 2013 में तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर मची भगदड़ के दौरान 36 लोगों अपनी जान गंवानी पड़ी थी, जबकि 1954 में इसी आयोजन में 800 लोगों की मौत हुई थी। उस दौरान कुंभ में 50 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी।
वर्ष 2005 से लेकर 2011 तक धार्मिक स्थल पर अफवाहों से मची भगदड़ में 300 लोग मारे जा चुके हैं। राजस्थान के चामुंडा देवी, हिमांचल के नैना देवी, केरल के सबरीमाला और महाराष्ट्र के मंडहर देवी मंदिर में इस तरह की घटनाएं हुई हैं। हलांकि इस तरह की घटनाएं केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में हुई हैं, लेकिन यहां मरने वालों को संख्या सबसे अधिक रही है।
वर्ष 1980 से 2007 तक दुनिया में भगदड़ की 215 घटनाएं हुईं। 7,000 से अधिक लोगों की मौत हुई उससे दुगुने लोग जख्मी हुए। 2005 में बगदाद में एक धार्मिक जुलूस के के दौरान तकरीबन 700 लोग मारे गए। जबकि 2006 में मीना घाटी में हज के दौरान लगभग 400 लोगों की मौत हुई। लेकिन विदेशों में चिकित्सा और व दूसरी सुविधाएं त्वरितगति से उपलब्ध कराए जाने से अधिक से अधिक लोगों की जान बचाई जाती है, जबकि विकासशील देशों बेहतर मैनेजमेंट उपलब्ध न होने से मरने वालों की तादाद अधिक होती है।
कई बार तो ऐसा भी होता है जब अस्पताल प्रबंध भी हाथ खड़े कर देता है। उसके पास इमरजेंसी चिकित्सा का अकाल हो जाता है। जिससे चाहते हुए भी लोगों की जान नहीं बचायी जा सकती है। इस तरह के हादसों के बाद लाशों पर सियासत शुरू हो जाती है। सत्ता और प्रतिपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप का दौर प्रारंभ हो जाता है। विपक्ष सत्ता पक्ष को घेरता है।
हादसे में अपने प्राण गंवा चुके लोगों के यहां पहुंच कर उनकी संवेदना से खेला जाता है। दो-चार दिन के चिल्ल-पों के बाद सब कुछ शांत हो जाता है। फिर इंतजार होता है एक और हादसे का। लेकिन घटना के पहले न तो हमारी संवेदनशील मीडिया और न ही स्वयंसेवी संगठन, और न राजनैतिक दल ऐस स्थानों का जायजा लेकर खामियां सामने लाते हैं।
बस केवल सरकार को घेर कर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है। जैसे लोगों की जान दल, व्यवस्था और राजनीति से जुड़ी है।
मौत पर भी खेमेबाजी होती है। यह भी होता है कि मरने वालों में सबसे अधिक अधिक किसी जाति, धर्म और वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोग हैं। उसी अनुसार सियासत का खाका तैयार होता हैं। शोर मचाने से हम इस तरह के हादसों को नहीं रोक सकते हैं। धर्म भीरुता भी हादसों का करण बनती है।
निश्चित तौर पर धर्म हमारी आस्था से जुड़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम धर्म की अंध श्रद्धा में अपनी और परिवार की जिंदगी ही दांव लगा बैठे। इसका हमें पुरा खयाल करना होगा। तभी हम इस तरह के हादसों पर रोक लगा सकते हैं।
पुष्करम में 12 बाद होने वाले इस धार्मिक उत्सव में आने वाले दिनों में और भीड़ जुटेगी। धार्मिक मान्यता खगोलिय ²ष्टि से यह दुर्लभ संयोग महापुष्करालू 144 साल बाद आया है। इसके अलावा हमारे सामने दो और धार्मिक उत्सव हैं। नासिक में महाकुंभ की तैयारी शुरुआत हो चुकी है।
त्रयंबकेश्वर में 29 अगस्त के अलावा 13 और 25 सितंबर को शाही स्नान का योग है। इस दौरान वहां भारी भीड़ उमड़ेगी। फिर से राजामुंदरी की घटना न दोहराई जाए इसके लिए हमें तैयार रहना होगा। हादसों के को देखते हुए सरकारों को लोगों की सुरक्षा के लिए जहां खास तैयारियों की जरूरत है।
वहीं ऐसे आयोजनों में दुर्घटना बीमा का भी प्रावधान किया जाए, जिससे हादसे में जान गंवाने वालों लोगों के आश्रितों को दिलाशा दिलाई जाए। ओड़िशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का भी आयोजन होना है। यहां 50 लाख लोगों के जमा होने की संभावना है।
पुष्करम हादसे के बाद यह उत्सव भी एक चुनौती बना है। लेकिन इस साल यहां दुर्घना बीमा का प्राविधान किया गया है। अगर हादसे में किसी की जान जाती है तो उसे पांच लाख का बीमा कवर दिया जाएगा। यह बेहर फैसला है। इसे व्यापकता में लाने की आवश्यकता है। धार्मिक हादसों से सबक लेते हुए हमें भीड़ की सुरक्षा का बेहतर इंतजाम करना होगा।