भोपाल(आईएएनएस)। खेत में पपीतों के पेड़ के बीच खड़े नंदराम के चेहरे की चमक और प्रफुल्लित भाव किसी को भी रोमांचित कर देगा, क्योंकि यह किसान बुंदेलखंड से नाता रखता है, जिसे दुनिया में सूखा, बदहाली और भुखमरी का इलाका माना जाता है।
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले का छोटा सा गांव है ग्याजीतपुरा, जो बहादुरपुरा पंचायत में आता है। इस गांव की खूबी यह है कि यहां के किसान अपने खेतों में पूरी तरह जैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं और गेहूं, सोयाबीन जैसे फसलों के साथ खेत के एक हिस्से में ऐसी फसलों की पैदावार करते हैं, जो उन्हें हर मौसम में नगद राशि मुहैया कराती रहती है।
नंदराम बताता है कि उसने अपने खेत के एक हिस्से में पपीता, उसके बीच में टमाटर व मिर्ची और कुछ हिस्से में अरबी लगाई है, वहीं शेष लगभग दो तिहाई हिस्से में अन्य फसल की खेती करता है। इससे उसका जीवन बेहतर तरीके से चल रहा है। वह कहता है कि गेहूं व अन्य फसल को अगर नुकसान भी हो जाता है तो पपीता व अन्य सब्जियां उसे राहत दिए रहती है। पपीता से तो वह हर वर्ष एक लाख रुपये तक कमा लेता है।
इसी तरह इस गांव के रघुवीर अहिरवार के लिए खेती फायदे का धंधा बन चुकी है। उसका कहना है कि वह अपने खेत में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करता है, बल्कि इकोसन शौचालय के अपशिष्ट को ही खाद के तौर पर उपयोग करता है। इससे फसल पर लागत कम आती है, और बेमौसम बारिश या कम बारिश होने से गेहूं, चना सोयाबीन आदि फसल को नुकसान भी हो जाए तो सब्जियां काफी मददगार साबित होती हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और परमार्थ सामाजिक संस्था के प्रमुख संजय सिंह का कहना है कि बुंदेलखंड मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में फैला हुआ है, यह ऐसा इलाका है जहां हर तीन से पांच वर्ष में एक बार सूखे के हालात जरूर बनते हैं, यही कारण होता है कि किसान आत्महत्याएं करते हैं, हजारों परिवार रोजगार के लिए पलायन करते हैं। यह स्थितियां दशकों से चली आ रही है। सरकार की तमाम कोशिशें हालात नहीं बदल पाई है, मगर जिन किसानों ने अपने खेती के तरीके को बदला है, वे खुशहाल हुए हैं।
इस इलाके का किसान अब भी परंपरागत खेती पर केंद्रित है, यही कारण है कि अधिक बारिश या सूखा उसे तोड़ देती है, वह उद्यानिकी की तरफ आसानी से बढ़ने को तैयार नहीं है, यही कारण है कि उसकी हालत में बदलाव नहीं आ पा रहा है। टीकमगढ़ के कृषि विकास केंद्र के डॉ. राकेश प्रजापति ने आईएएनएस से कहा कि किसानों को अगर स्थिति बदलना है तो उन्हें मन बदलना होगा।
डॉ. प्रजापति कहते हैं कि बारिश बहुत कम नहीं होती है, मगर जो बारिश होती है उसका पानी ठीक से रोका नहीं जा पाता है, परिणामस्वरूप खेती को पानी नहीं मिल पाता। जिन किसानों ने पानी का बेहतर प्रबंधन किया और उद्यानिकी को अपनाया है, उनकी माली हालत बदली है, दिगौड़ा कस्बे के नदिया गांव का अमरचंद तो ऐसा किसान है जिसने पपीता की खेती से एक लाख रुपये कमाया है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 51 हजार रुपये के पुरस्कार से सम्मानित किया है।
किसानों के बेटे पढ़ लिखकर नौकरी न मिलने पर अपने पिता का खेती में हाथ बंटा रहे हैं। राजेंद्र प्रसाद ने बीए तक की पढ़ाई की, नौकरी नहीं मिली तो वह अपने गांव ग्याजीतपुरा लौट आया है। वह भी जैविक खेती कर रहा है। वह बताता है कि उसके गांव के अधिकांश किसान जैविक खेती कर रहे हैं, यह खाद रासायनिक खाद से सस्ती तो होती ही है, साथ में आगामी वर्षो में पैदावार कम होने का खतरा भी नहीं रहता। ऐसा इसलिए, क्योंकि जीवामृत (जैविक खाद) मिट्टी की उर्वरकता को बनाए रखती है।
नगदी फसलों को खेती का हिस्सा बनाने वाले किसान खुशहाल हैं और कहते हैं कि उन्हें कहीं किसी की नजर न लग जाए।