भोपाल- बुंदेलखंड के विकास और समाज की प्रगति में जातिप्रथा एक बड़ी बाधा है, दौर भले ही बदल गया हो, मगर यहां के कई गांव अब भी ऐसे है जहां सामंतों (क्षत्रिय और ब्राह्मण) के घर के सामने से दलित-आदिवासी साइकिल पर चढ़कर या जूते पहनकर नहीं निकल सकता, मगर पानी की समस्या ने कई गांव में सामंतों और दलितों को एक साथ बैठने को मजबूर कर दिया है।
बुंदेलखंड में व्याप्त जाति प्रथा का अंदाजा गांवों की बसाहट को ही देखकर लगाया जा सकता है, यहां दलित, आदिवासी से लेकर पिछड़े वर्ग के परिवारों के मकान गांव के बाहरी हिस्से में हुआ करते हैं। इतना ही नहीं, जब इन वर्ग के लोगों का सामंती परिवारों के घरों तक आना होता है तो वे किसी की बराबरी पर नहीं बैठ सकते, उन्हें जमीन पर ही बैठना पड़ता है। वहीं कुछ क्षेत्रों में इससे हटकर तस्वीर उभरने लगी है।
जातिप्रथा के लिए चर्चित बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले के कौंडिया गांव और छतरपुर के देवपुर का नजारा हालात में आ रहे बदलाव का संकेत दे जाता है। कौंडिया गांव में भगवान दास वंशकार और राम स्वरुप चतुर्वेदी सहित अन्य समाज के लोगों केा एक साथ बैठा देखकर इस बात पर भरोसा कम ही होता है कि बैठक बुंदेलखंड के किसी गांव में चल रही है। ये सभी लोग पानी के संरक्षण और संग्रहण के मुद्दे पर जमा हुए हैं।
देश में पानी संकट से जूझने वाले इलाकों में से एक है बुंदेलखंड। मानसून के आने से पहले इस इलाके में गैर सरकारी स्तर पर बारिश के पानी को रोकने की तैयारी शुरू हो गई है। कौंडिया गांव में पानी पंचायत भी है।
इस पंचायत के अध्यक्ष राम स्वरूप बताते हैं कि पिछले तीन वर्षो से हुए प्रयासों का ही नतीजा है कि गांव में गर्मी में पानी की समस्या नहीं आई। तालाब के सलूस सुधरने से बरसात का पानी नहीं बह पाया और गर्मी में भी इस तालाब में पानी रहा, वहीं कुओं का भी जलस्तर बना रहा।
भगवान दास वंशकार का कहना है कि वे दलित वर्ग से आते हैं, मगर सभी के साथ मिल बैठकर पानी के मुद्दे पर विचार विमर्श करते हैं। उन्हें इस बात का कभी अहसास नहीं हेाता है कि वे वंशकार हैं। साथ ही कहते हैं कि वास्तविकता तो यह है कि पानी तो सभी को चाहिए, अगर जात-पात मे पड़ेंगे तो मिलकर काम नहीं कर सकते और परेशान सबको होना पड़ेगा।
रामनरेश और राकेश चतुर्वेदी ने आईएएनएस से चर्चा करते हुए कहा कि ग्रामीणों के आपसी सहयोग का ही नतीजा है कि गांव में पानी की समस्या नहीं रही। मानसून आने वाला है, इसलिए अभी से यह कोशिशें शुरू हो गई हैं कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को कैसे रोका जाए, वह बर्बाद न हो। कौंडिया के नजदीकी गांव बनगाय में भी जातिप्रथा पर पानी की मुहिम भारी पड़ रही है।
छतरपुर जिले के देवपुर गांव का हाल भी टीकमगढ़ के कौंडिया जैसा ही है। यहां सभी जातियों के लोग पानी के लिए एक है। इस गांव के रुद्र प्रताप सिंह कहते हैं कि बुंदेलखंड के अन्य इलाकों में भले ही जातिप्रथा हावी हो मगर इस गांव में ऐसा नहीं है। यहां के लोग मिल बैठकर आपसी सामंजस्य बनाकर एक दूसरे के सुख दुख में साथ रहते है। पानी के लिए भी सभी एक साथ है।
इसी गांव के गनुआ आदिवासी और गोवर्धन यादव कहता है कि गांव के लोगों ने बीते वर्ष मिलकर तालाब को सुधारा, पानी की बर्बादी नहीं हो पाई, इसीलिए एक तालाब में गर्मी में भी पानी रहा। अब इस बार फिर यही कोशिश होगी कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को रोका जाए।
इस क्षेत्र में काम कर रही परमार्थ समाज सेवा संस्थान के संजय सिंह का कहना है कि पानी ने पंचायतों के गठन से कई गांव में बड़ा काम हुआ है। जातिप्रथा के बंधन को तोड़कर लोग एक मंच पर आए हैं और उन्होंने पानी को बचाने और रोकने में अहम भूमिका निभाई है, आगामी मानसून के ज्यादा से ज्यादा पानी को लोग रोकना चाहते हैं, ताकि पानी की समस्या के कलंक से उन्हें मुक्ति मिले।
इस इलाके में वैसे ही बारिश का औसत लगातार कम होता जा रहा है। अधिकांश स्थानों पर 800 से 900 सेंटीमीटर ही बारिश हो पाती है। जो सामान्य औसत से कम है। यही कारण है कि यहां हर तीन से पांच वर्षो में सूखा दस्तक दे जाता है।
पानी के लिए बुंदेलखंड के कई गांव में आए बदलाव को राज्य के पंचायत व ग्रामीण विकास विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव (एडीशनल चीफ सेक्रेट्री) अरुणा शर्मा क्षेत्र के लिए सुखद मानती हैं। उनका कहना है कि जब भी बात लाभ की आती है तो बंधन टूटते ही है। बुंदेलखंड में पानी सभी को चाहिए, लिहाजा वे एक हुए हैं, यह अच्छी शुरुआत है।
पानी की समस्या ही सही बुंदेलखंड की उस कुरीति को खत्म करने के लिए हथियार बन रहा है, जिसे सरकार और प्रशासन के लिए खत्म करना कभी भी आसान नहीं रहा है। बदलाव की यह बयार अगर आगे बढ़ी तो इस इलाके से न केवल सामाजिक विषमता व वैमनस्यता कम होगी, बल्कि पानी के संरक्षण का भाव तेजी से जागृत होगा, जो बुंदेलखंड को जलसंकट के कलंक से मुक्ति दिलाने में सहायक साबित होगा।