ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूज़ीलैंड में क्रिकेट कार्निवाल चल रहा है। प्रति चार वर्षों में आयोजित होने वाले इस विश्व कप के लिए भारत की जनता की दीवानगी सिर चढ़कर बोल रही है और हो भी क्यों न? भारतीय क्रिकेट टीम केवल भारत का ही नहीं, अपितु भारत की रूह का भी प्रतिनिधित्व करती है।
भारत की रूह इस खेल में कैसे बसती है इसे समझने के लिए हम ज्यादा पीछे न जाकर सत्तर के दशक से शुरुआत करते हैं जब सुनील गावस्कर का भारतीय क्रिकेट में प्रदार्पण हुआ था तब भारतवासियों में क्रिकेट के प्रति थोड़ी उत्सुकता और जानकारी बढ़ी। यही समय था जब भारत और भारतीय क्रिकेट दोनों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की शुरुआत की। दोनों की प्रगति में एक विस्मयकारी साम्य है। उस समय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्थिति एक गरीब तथा गुलामी से बाहर आए ऐसे राष्ट्र की थी जो विकसित देशों की पंक्ति में बैठने से भी झिझकता था। सन् 1962 के चीनी आक्रमण और सन् 1965 के पाकिस्तानी आक्रमण की पृष्ठभूमि थी। महाशक्तियों के सामने हमारी औकात बौनी सी थी। भारत जैसे एक विनम्र सा, सहमा सा राष्ट्र था जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना स्थान बनाने की चेष्टा कर रहा था। उधर क्रिकेट में गावस्कर के युग में भारत मैच बचाने के लिए खेलता था। मैच का ड्रॉ हो जाना एक उपलब्धि मानी जाती थी। यह वही समय था जब कपिल देव जैसे अपवादों को छोड़कर सभी खिलाड़ियों की सोच रक्षात्मक होती थी। भारतीय टीम एक दोयम दर्जे की टीम मानी जाती थी जिसे घटिया सुविधाएं प्राप्त थीं किन्तु खिलाड़ी थोड़े में ही संतुष्ट थे। इस श्रमसाध्य युग का अंत कपिल के नेतृत्व में सन् 1985 की विश्व कप विजय के साथ हुआ। इस तरह क्रिकेट और भारत दोनों के लिए कठिन समय बीता। गावस्कर एवं कपिल रिटायर हुए और सचिन युग प्रारम्भ हुआ। जन आकांक्षाओं को पर लगने लगे। जीतने के सपने आने लगे। उधर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने अपनी पहचान और स्थान बनाना शुरू किया। राष्ट्रों के समूह में अपनी बात प्रभावी तरीके से रखना आरम्भ किया। दूसरे राष्ट्र तवज्जो दे या न दें, हमें अपनी बात कहने पर सुकून था। भारतीय राजनयिकों को कूटनीतिक चालें समझ में आने लगीं।
फिर आया सचिन का रिटायरमेंट। विश्व कप में पहली बार सचिन दर्शक दीर्घा में हैं। एक युग की समाप्ति हुई और एक सोच का अंत। धोनी के नेतृत्व में विराट कोहली एक नए युग का सूत्रपात करते दिख रहे हैं। टीम अब केवल जीतने के लिए मैदान में उतरती है। खेल में बड़े और छोटे का भेद पाट दिया गया है। अपनी भावनाओं के बेधड़क प्रदर्शन में अब खिलाड़ियों को कोई संकोच नहीं।
आत्मविश्वास से भरपूर टीम को यह भय नहीं कि विदेशी मीडिया क्या लिखेगा? ठीक वैसे ही जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आजकल भारत कूटनीतिक बल्लेबाजी करने निर्भीक होकर उतरता है। यह अब हमारे लिए सचमुच संतोष की बात है कि क्रिकेट का मैदान हो या कूटनीतिक मंच, आज भारत की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। निश्चित ही भारत के बढ़ते आत्मविश्वास की झलक हमें इस नए दौर की नई टीम में दिखाई देती है। इसलिए यह खेल देश की धड़कन से जुड़ा है।
दूसरी ओर राष्ट्र के चरित्र का अक्स पाकिस्तान की टीम में भी देखा जा सकता है। दिग्भ्रमित राष्ट्र के चरित्र की परछाई उसकी टीम और उसके खेल में आना स्वाभाविक है। ऐसे राष्ट्रों द्वारा विश्व कप की जीत की कामना इसलिए की जाती है कि राष्ट्र के इतिहास में कुछ हर्ष के क्षण पैदा हों और दिग्भ्रमित राष्ट्र को कोई नई दिशा मिले किन्तु यह केवल शेख़चिल्लियों वाली बातें हैं, क्योंकि कोई क्रिकेट टीम की जीत राष्ट्र की दशा या दिशा को नहीं बदल सकती। हां, यह सही है कि जनता का आत्मविश्वास राष्ट्र के प्रतिनिधियों में परिलक्षित होता है, फिर चाहे वे किसी भी मंच पर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हों।
भारतीय टीम के ताजगी भरे नए चेहरे रूहानी जोश से भरपूर हैं, जहां जीत का जश्न तो है किन्तु हार का गम नहीं। स्थिति वही श्रेष्ठ है, जहां हम जीत और हार दोनों का आनंद ले सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी सफलता अंतिम नहीं होती और कितनी भी बड़ी हार घातक नहीं होती, महत्वपूर्ण है कुछ कर दिखाने की जिजीविषा को जिंदा रखना। आज भारत का प्रत्येक नागरिक यह रहस्य समझता है और उसी समझ का प्रतिबिंब हम भारत की इस युवा टीम में देखते हैं। इस लेखक का मत है कि यदि अहंकार से यदि दूर रहें तो भारतीय कूटनीति और भारतीय क्रिकेट दोनों का भविष्य उज्जवल है।
सच टाइम्स से