नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि 2018 चुनावी बॉन्ड योजना ‘चयनात्मक गुमनामी/गोपनीयता’ से ग्रस्त है, जिसके कारण ‘सूचना में कमी’ आती है. इसने इस बात पर हैरानी भी जताई कि क्या इससे दुरुपयोग की गुंजाइश पैदा होती है क्योंकि दानकर्ता, बॉन्ड खरीदने के लिए बड़ी राशि का निवेश करने के बजाय विभिन्न खरीदारों से छोटी राशि के लिए बॉन्ड ले सकते हैं
बुधवार की सुनवाई में अदालत ने यह चिंता भी जताई कि किसी विपक्षी दल को यह नहीं पता होगा कि दान देने वाला कौन हैं, लेकिन ‘विपक्षी दल को दान देने वालों का पता कम से कम जांच एजेंसियों द्वारा लगाया जा सकता है.’
योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ की अध्यक्षता करते हुए सीजेआई डी वाईचंद्रचूड़ ने कहा, ‘योजना के साथ समस्या यह है कि यह चयनात्मक गुमनामी/गोपनीयता देती है. यह पूरी तरह से गुमनाम नहीं है. यह एसबीआई के लिए गोपनीय नहीं है (बॉन्ड केवल एसबीआई से खरीदे जा सकते हैं). यह कानून प्रवर्तन एजेंसी के लिए गोपनीय नहीं है. इसलिए, कोई बड़ा दानकर्ता या डोनर किसी राजनीतिक दल को देने के उद्देश्य से चुनावी बॉन्ड खरीदने का जोखिम कभी नहीं उठाएगा.’
उन्होंने आगे कहा, ‘बड़े दानकर्ता को बस ये करना है कि दिए जाने वाले चंदे को अलग-अलग करना है, ऐसे लोगों को लाना है जो छोटी राशि के चुनावी बॉन्ड खरीदें, जिन्हें बाद में आधिकारिक बैंकिंग चैनलों द्वारा खरीदा जाएगा, कैश के जरिये नहीं.’
सीजेआई केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलों का जवाब दे रहे थे, जिनका कहना था कि यह योजना राजनीति से काले धन, जिससे हर देश जूझ रहा था, को खत्म करने के लिए उठाए गए कई कदमों का हिस्सा थी.
पीठ में सीजेआई के साथ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे. मेहता ने पीठ से कहा, ‘यह पहला कदम था. दूसरा चरण शेल कंपनियों का पंजीकरण करना था. 2018-2021 के बीच भारत सरकार ने 2,38,223 शेल कंपनियों की पहचान की और कार्रवाई की गई. यह उन तरीकों में से एक है जिनके माध्यम से काला धन गुजरता है.’
मेहता ने कहा, ‘योजना में कोई गुमनामी या अस्पष्टता नहीं है बल्कि ‘यह एक प्रतिबंधित, सीमित गोपनीयता है जिसे उजागर किया जा सकता है और अदालती निर्देश पर इस परदे को हटाया जा सकता है.’
उल्लेखनीय है कि यह पीठ 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किए गए चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक दलों की गुमनाम फंडिंग की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुन रही है.
इससे पहले मंगलवार की सुनवाई में शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग चुनावी बॉन्ड से मिले चंदे का ब्योरा तैयार रखने के लिए कहा था.
बुधवार की सुनवाई में जस्टिस गवई ने सॉलिसिटर जनरल मेहता से उन चिंताओं के बारे में पूछा कि क्या ऐसा संभव है कि 100 लोग एक करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे और कोई कैश भुगतान करके उनसे इन्हें 100 करोड़ रुपये खरीद सकता है.
मेहता ने जवाब दिया कि किसी व्यक्ति के लिए किसी राजनीतिक दल के पास जाना और कहना कि 100 करोड़ रुपये नकद ले लो, यह आसान होगा, न कि इसमें अधिक सहयोगी शामिल करना.
जस्टिस गवई ने कहा, ‘फायदा यह है कि राजनीतिक दल को रकम ह्वाइट में मिलेगी.’ इस पर सीजेआई ने टोकते हुए कहा, ‘असल में क्या होगा कि एक बड़ा डोनर कभी भी ऐसा जोखिम नहीं लेगा.’
हालांकि, मेहता ने कहा कि डोनर सीधे बॉन्ड खरीद रहे हैं. उन्होंने कहा कि संभावित दुरुपयोग इस योजना को असंवैधानिक ठहराने का आधार नहीं हो सकता है. यह कहते हुए कि पुरानी योजना और भी कम पारदर्शी थी, उन्होंने जोड़ा कि उस पर वापस जाने से चीजें और खराब हो जाएंगी.
अपनी दलील को सही साबित करने के मकसद से उन्होंने पुरानी योजना के तहत अज्ञात स्रोतों से पार्टियों की आय के आंकड़ों का हवाला दिया. उन्होंने कहा, ‘वित्त वर्ष 2004-2005 के दौरान अज्ञात स्रोतों से राष्ट्रीय पार्टियों की आय 274.13 करोड़ रुपये से 313% बढ़कर वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान 1,130 करोड़ रुपये हो गई थी.’
यह सवाल उठने पर कि बॉन्ड का बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ दल को गया है, एसजी ने कहा, ‘सत्तारूढ़ दल को अधिक योगदान जाना नियम सरीखा है. ऐसा हमेशा से ही रहा है, चाहे यह यह योजना हो या इससे पहले वाली योजना.’
सीजेआई के इस सवाल पर कि बड़ा हिस्सा हमेशा सत्ताधारी दल को ही क्यों जाता है, मेहता ने कहा, ‘मैं कोई अनुमान नहीं लगा सकता, लेकिन आंकड़े कहते हैं कि जो भी सत्ताधारी दल था, उसे संभवतः अधिक हिस्सा मिला.’
उन्होंने जोड़ा, ‘यह मेरा जवाब है, सरकार का जवाब नहीं. आमतौर पर हर राजनीतिक दल के अपने कार्यक्रम और नीतियां आदि होते हैं. उनकी अपनी कार्यशैली होती है. सभी लोग- व्यक्ति, कॉरपोरेट- कार्यशैली को जानते हैं. वे जानते हैं कि अगर यह पार्टी सरकार बनाती है, तो यह हमारे लिए अधिक फायदेमंद होगा… किसी डोनर के मन में क्या चल रहा है, यह समझना संभव नहीं है. लेकिन बड़े पैमाने पर, वे अपनी रुचि के अनुसार फैसले लेते हैं. वे चंदा नहीं दे रहे हैं. वे अपना कारोबार कर रहे हैं. यह बाज़ार-संचालित है. नेता जितना अधिक शक्तिशाली होगा, पार्टी जितनी अधिक सक्षम होगी, सफलता की संभावना उतनी ही अधिक होगी- ऐसे में डोनर को लगता है कि वह अपना कारोबार करने में अधिक सहज होगा.’
सीजेआई ने कहा, ‘अब हम जो कर रहे हैं वह यह है कि इस प्रक्रिया में सफेद धन लाने के प्रयास में, अनिवार्य रूप से, हम पूरी जानकारी न देने की दिशा में काम कर रहे हैं. यही दिक्कत है. मकसद पूरी तरह सराहनीय हो सकता है, सवाल यह है कि क्या आपने ऐसे साधन अपनाए जो आनुपातिक हों या जो अनुच्छेद 14 की कसौटी पर खरे उतरते हों?’
मेहता ने दोहराया कि इसे गोपनीय रखने के अलावा कुछ भी उत्पीड़न की समस्या का समाधान नहीं कर पाएगा और उत्पीड़न नकद द्वारा भुगतान को बढ़ावा देता है.
इस पर जस्टिस खन्ना ने कहा, ‘उत्पीड़न और प्रतिशोध आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा होता है, विपक्षी पार्टी द्वारा नहीं. तो जो आंकड़े आप कह रहे हैं – कि अधिकतम चंदा सत्ताधरी पार्टी को गया है, न कि विपक्ष में रही पार्टी को, इसलिए, तार्किक रूप से यह उस दलील से मेल नहीं खा सकता.’
उन्होंने आगे कहा, ‘दूसरा मुद्दा यह है कि विपक्षी दल को मिलने वाले चंदे के बारे में जानकारी पाने के कई तरीके हैं, और सत्ता में मौजूद पार्टी के लिए वह जानकारी प्राप्त करना आसान होता है. डर यह है कि इस चयनात्मक गोपनीयता के कारण विपक्षी दल को यह पता नहीं चल जाएगा कि आपके डोनर कौन हैं. लेकिन विपक्षी दल को दान देने वालों का पता कम से कम जांच एजेंसियों द्वारा लगाया जा सकता है. इसलिए, आपके चंदे पर सवाल उठाने से उन्हें नुकसान होता है जबकि उनके दान पर सवाल उठाया जा सकता है.”
मेहता ने कहा कि इस योजना के तहत केंद्र सरकार सहित किसी के लिए भी यह जानना संभव नहीं है कि किसने किसको चंदा दिया है. उन्होंने जोड़ा कि हालांकि हर प्रणाली का दुरुपयोग होने की संभावना है, 2018 की योजना ‘ऐसे लोगों को बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है जो बिना किसी प्रतिशोध के योगदान करना चाहते हैं.’
सीजेआई ने इस पर कहा, ‘लेकिन इस योजना से प्रतिशोध को टाला नहीं जा सकता… कंपनी अधिनियम के तहत, जैसा कि अब संशोधित किया गया है, किसी कंपनी को यह खुलासा करने की जरूरत नहीं है कि उसने किस राजनीतिक दल को चंदा दिया है. लेकिन उसे यह बताना होगा कि उसने पूरी तरह से कितना योगदान दिया है. तो एक कंपनी कहती है कि मैंने इस वित्तीय वर्ष में 400 करोड़ रुपये का योगदान दिया है. अब एक पार्टी, जिसमें सत्ता में एक पार्टी भी शामिल है, जानती है कि उस कंपनी से चुनावी बॉन्ड के रूप में उसे कितना पैसा मिला है… आप कंपनी की बैलेंस शीट से यह भी जान सकते हैं कि उसने वृहद अर्थ में कितना योगदान दिया है… यह जानने के लिए पर्याप्त है कि सत्ताधारी पार्टी को कितना पैसा गया है. तो ऐसा नहीं है कि इस योजना से प्रतिशोध की संभावना टल जाती है.’
एसजी के इस तर्क पर कि पुरानी योजना के तहत दुरुपयोग की अधिक गुंजाइश थी क्योंकि अज्ञात स्रोतों से नकद भुगतान योगदान पर हावी था, सीजेआई ने कहा, ‘राजनीतिक दलों के लिए शंका की यह समस्या तो बनी रहेगी, चाहे आप राजनीतिक स्पेक्ट्रम के किसी भी तरफ हों. इसलिए हम यहां यह नहीं कह रहे हैं कि एक राजनीतिक दल दूसरे से अधिक पवित्र है. हमें कोई समस्या नहीं है…’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह अभी भी असल में इस अर्थ में सवाल उठाता है कि हमारे लिए यह नहीं है कि वर्तमान में सत्ता में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल इसका लाभार्थी होगा या नहीं. हम संवैधानिकता के प्रश्न को जांच रहे हैं. हम आपकी बात मानते हैं कि यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा है. जहां तक चुनावी योगदान का सवाल है, जो भी सत्ता में होता है उसे बड़ा हिस्सा मिलता है. हमें इससे निपटना होगा. इन सबसे अप्रभावित रहते हुए.’
उन्होंने यह भी जोड़ा, ‘डोनर अनिवार्य रूप से यह बॉन्ड नहीं खरीदता है. बॉन्ड खरीदने वाला व्यक्ति डोनर नहीं हो सकता है. दूसरा, जो व्यक्ति खरीदेगा, उसकी बैलेंस शीट में बॉन्ड की राशि दिखेगी. खरीदार की बैलेंस शीट डोनर की नहीं, बल्कि खरीदार की दिखाई देगी.’
संसद में विधेयक पेश करने पर एसजी की दलीलों का जिक्र करते हुए सीजेआई ने कहा, ‘तत्कालीन वित्त मंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि जब नकद दिया जाता है, तो पैसे का स्रोत, डोनर और इसे कहां खर्च किया जाता है, यह पता नहीं चलता है, इसलिए अब तो पता चल ही जाएगा और पूछा था कि ये कैसे पता चलेगा?’
उन्होंने बात पूरी करते हुए कहा, ‘मान लीजिए कि एक चुनावी बॉन्ड खरीदा जाता है, तो पैसे का स्रोत ज्ञात नहीं है. डोनर का पता नहीं है. कहां खर्च किया गया, पता नहीं. तो तीनों का पता नहीं. ‘
मामले की सुनवाई गुरुवार को भी जारी रही. लाइव लॉ के अनुसार, गुरुवार की कार्यवाही में अदालत ने चुनाव आयोग से 12 अप्रैल 2019 से 30 सितंबर 2023 तक चुनावी बॉन्ड से मिले चंदे का डेटा अदालत को सौंपने को कहा और मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.