‘तानाशाही प्रथाओं को बढ़ाने के लिए डिजिटल कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल’ को दर्ज करने वाले ‘अनफ्रीडम मॉनिटर’ प्रोजेक्ट में 20 देश शामिल थे. रिपोर्ट में भारत के प्रधानमंत्री, सत्तारूढ़ पार्टी और उनके ‘फॉलोवर्स’ का ज़िक्र ‘सूचना को नियंत्रित करने की मांग करने वाली सरकारों’ पर हुई चर्चा में किया गया है.
रिपोर्ट के अनुसार, अनफ्रीडम मॉनिटर , जो ‘तानाशाही प्रथाओं को आगे बढ़ाने के लिए डिजिटल कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के बढ़ते इस्तेमाल का विश्लेषण, दस्तावेजीकरण और रिपोर्ट करने का एक प्रोजेक्ट है, में भारत का जिक्र सरकार द्वारा डिजिटल तानाशाही को बढ़ावा देने के संदर्भ में किया गया है.
इस अनफ्रीडम मॉनिटर में जांच के लिए चुने गए पहले 20 देश वहां की ‘सरकार की प्रकृति, मानवाधिकारों के प्रति दृष्टिकोण समेत सूचकांकों में रैंकिंग, संचार और सर्विलांस टेक्नोलॉजी के प्रयोग के दृष्टिकोण सहित’ के आधार पर चयनित हैं. इसमें भारत के साथ ब्राजील, कैमरून, इक्वाडोर, मिस्र, अल साल्वाडोर, हांगकांग, हंगरी, कजाकिस्तान, केन्या, किर्गिस्तान, मोरक्को, म्यांमार, फिलीपींस, रूस, सूडान, तंजानिया, तुर्की, वेनेजुएला और जिंबाब्वे जैसे अन्य देश शामिल हैं.
कई देशों के रिसर्चरों के इस शोध को ‘ग्लोबल वॉयस एडवॉक्स’ ने सामने रखा है. इस प्रोजेक्ट की फंडिंग डॉयचे वेले अकादमी (डीडब्ल्यू) द्वारा की गई थी.
क्या होती है डिजिटल ‘तानाशाही’
डिजिटल तानाशाही का आशय ‘दमनकारी राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल’ से है. ग्लोबल वॉयस की सह-संस्थापक रेबेका मैकिनॉन द्वारा गढ़ा गया ‘नेटवर्क तानाशाही’ भी इस विचार पर जोर देता है कि लोगों को नेटवर्क सूचना प्रणालियों का हिस्सा बनाकर तानाशाह सत्ता के समर्थन के लिए शामिल किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, किसी सर्विस तक पहुंच के लिए उनकी गोपनीयता को दरकिनार करना, या अत्यधिक सेंसर किए चर्चा प्लेटफार्मों के सहारे उपलब्ध जानकारी को विकृत कर देना.
रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘तानाशाह सरकारें केवल इंटरनेट, मीडिया और अन्य संचार टेक्नोलॉजी तक पहुंच को प्रतिबंधित नहीं करना चाहती हैं. कई सरकारें ऐसी कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी में निवेश करती हैं जो स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है.
रिपोर्ट में ऐसी घटनाओं और सरकारों ने उन्हें कैसे संभाला है, की बात करती है, लेकिन मुख्य रूप से इन देशों में डेटा प्रशासन, बोलने, पहुंच और जानकारी कितनी स्वतंत्र है या नहीं, इसे समझने का प्रयास किया गया है.
‘डिजिटल इंडिया’ के क्या मसले हैं?
रिपोर्ट कहती है कि सरकारें और सरकार से संबद्ध निकाय ‘सूचना पारिस्थितिकी तंत्र बनाकर, उस पर प्रभाव बनाकर, बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार अभियान चलाकर और अन्य गतिविधियों के जरिये उस जानकारी को नियंत्रित करना चाहते हैं जो लोगों को मिलने वाली सूचनाओं और उनकी समझ को प्रभावित करते हैं.’
इसमें आगे ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के सरकार द्वारा फंड किए गए ‘डिजिटल मिलिशिया’, जिसने कोविड-19 से संबंधित विषयों के बारे में झूठी खबरें फैलाईं, से जुड़े होने की बात के बाद भारत के प्रधानमंत्री, उनकी पार्टी और समर्थकों का जिक्र किया गया है. (पृष्ठ-14) रिपोर्ट में लिखा है: ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा और उनके फॉलोवर्स ने लंबे समय से अपने ब्रांड को बढ़ावा देने और धार्मिक और राजनीतिक अल्पसंख्यकों को ट्रोल करने के लिए अपनी सोशल मीडिया मौजूदगी का इस्तेमाल किया है.’
रिपोर्ट ने पता कि इंटरनेट और टेलीकम्युनिकेशन तक पहुंच के अभाव के संदर्भ में नागरिकों की ‘उनके मसलों और राजनीतिक चर्चा में शामिल होने की क्षमता काफी कम हो गई है. रिपोर्ट में इसके हालिया उदाहरणों में म्यांमार के सैन्य तख्तापलट के बाद ‘भारत में नागरिकों के विरोध प्रदर्शन’ और तंजानिया में चुनावों का उल्लेख किया गया है.
रिपोर्ट कहती है कि स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए तानाशाही झुकाव रखने वाली सरकारें कई कारण गिनाती हैं, जिनमें से एक इन अंकुशों को नागरिकों के लिए फायदेमंद बताना है. इसके बाद कहा जाता है कि ‘सरकारों को राजनीतिक स्थिरता और सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मीडिया और सोशल मीडिया की निगरानी करनी चाहिए’, जो शोधकर्ताओं ने पाया कि यह भारत के साथ-साथ म्यांमार, वेनेजुएला, जिंबाब्वे, रूस, ईरान, किर्गिस्तान और रवांडा में प्रमुखता से हो रहा है.
रिपोर्ट के अनुसार, तानाशाही समर्थकों का एक लक्षण विरोधियों को बदनाम करने ध्यान केंद्रित करना है. उदाहरण के लिए, ऐसा कहना कि ‘सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकार राष्ट्र के दुश्मन हैं.’ रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा जिंबाब्वे, हंगरी, अल साल्वाडोर, चीन (और हांगकांग), कैमरून, फिलीपींस, रवांडा और ईरान के अलावा भारत में भी देखने को मिला है. रिपोर्ट कहती है कि इसके सहारे ‘मीडिया शटडाउन, पत्रकारों की गिरफ्तारी, सर्विलांस और प्रतिबंधात्मक मीडिया नियमों’ को सही ठहराया जाता है.’