छत्तीसगढ़ के दक्षिणी सिरे बस्तर में होली का त्यौहार फागुन मड़ई के स्वरूप में बेहद खास है। वो इसलिए क्योंकि बस्तर के तीज त्योहारों के सारे रीति रिवाजों में स्थानीय लोक देवी-देवताओं का ही महत्व है
बस्तर की प्रमुख आराध्य देवी मां दंतेश्वरी है और इन्हीं के सम्मान में यहां सारे तीज त्यौहार मनाए जाते हैं। होली का त्यौहार यहां फागुन मड़ई के स्वरूप में मनाया जाता है और यह फागुन शुक्ल की षष्ठी से लेकर चौदस तक आयोजित की जाती है।
10 दिनों तक चलने वाला यह आयोजन वर्तमान को इतिहास से जोड़ता है। फागुन मड़ई के आयोजन की प्रत्येक कड़ियां भव्य रियासतकालीन परम्पराओं के साथ मनाया जाता है। पारंपरिक और ऐतिहासिक महत्व वाले फागुन मड़ई की शुरुआत बसंत पंचमी से हो जाती है।
होली के 12 दिनों पहले से मुख्य आयोजन शुरू हो जाता है। दंतेश्वरी माई की पालकी मंदिर से निकलती है और सत्य नारायण मंदिर तक जाती है। वहां पूजा पाठ के बाद वापस मंदिर पहुंचती है। छत्तीसगढ़ समेत ओडिशा से लोग अपने ईष्ट देव का ध्वज और छत्र लेकर पहुंचते हैं।
करीब साढ़े सात सौ देवी-देवताओं का यहां फागुन मड़ई में संगम होता है। होली का पर्व माई दंतेश्वरी सभी देवी-देवताओं और मौजूद लोगों के साथ यहां मनाती हैं।
बसंत पंचमी के दिन लगभग 700 साल प्राचीन अष्टधातु से निर्मित, एक त्रिशूल स्तम्भ को दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार के सम्मुख स्थापना की जाती है।
इसी दोपहर को आमा मऊड रस्म का निर्वाह किया जाता है जिसके दौरान माईजी का छत्र नगर दर्शन के लिए निकाला जाता है और बस स्टैंड के पास स्थित चौक में देवी को आम के बौर अर्पित किए जाते हैं।
इसके बाद मड़ई के कार्यक्रमों का आरंभ मेंडका डोबरा मैदान में स्थित देवकोठी से होता है। जहां पूरे विधि-विधान के साथ देवी का छत्र लाया जाता है। फायर करने के साथ-साथ हर्षोल्लास तथा जयकारे के शोर में छत्र को सलामी दी जाती है।
इस रस्म के तहत होता है होलिका दहन –
दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बताते हैं कि इस दिन दीप प्रज्ज्वलन करते हैं और परम्परानुसार कलश की स्थापना की जाती है। पटेल द्वारा पुजारी के सिर में भंडारीन फूल से फूलपागा (पगड़ी) बांधा जाता है।
आमंत्रित देवी-देवताओं और उनके प्रतीकों, देवध्वज और छत्र के साथ माई जी की पालकी पूरी भव्यता के साथ परिभ्रमण के लिए निकाली जाती है। देवी की पालकी नारायण मंदिर लाई जाती है। जहां पूजा-अर्चना तथा विश्राम के बाद सभी वापस दंतेश्वरी माता मंदिर पहुंचते हैं।
इसी रात ताड-फलंगा धोनी की रस्म अदा की जाती है। इस रस्म के तहत ताड़ के पत्तों को दंतेश्वरी तालाब के जल से विधि-विधान से धोकर उन्हें मंदिर में रखा जाता है, इन पत्तों का प्रयोग होलिका दहन के लिए होता है।
होलिका दहन की भी खास परंपरा –
होलिका दहन की खास परंपरा- दंतेवाड़ा में भी होली रंग-गुलाल से खेली तो जाती है, परंतु यहां दंतेवाड़ा में माई दंतेश्वरी के सम्मान में चलने वाला फागुन मेले के नवे दिन, होलिका दहन से भी जुडी एक अनोखी रस्म हैं।
यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार बस्तर की एक राजकुमारी की याद में, जलाई गई होली की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से होली खेली ज़ाती हैं। यह अनोखी रस्म, जौहर करने वाली राजकुमारी के सम्मान में की जाती है।
सती शिला- दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बताते हैं कि एक राजकुमारी ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आग में कुदकर जौहर कर लिया था।
राजकुमारी का नाम तो मालूम नहीं पर प्रचलित कथा के अनुसार सैकड़ों सालों पहले बस्तर की एक राजकुमारी को किसी हमलावर ने अगवा करने की कोशिश की थी।
राजकुमारी ने अपनी अस्मिता बचाने के लिये मंदिर परिसर में आग जलवाई और मां दंतेश्वरी का नाम लेते हुए आग में कूद गई।
उस राजकुमारी की कुर्बानी को यादगार बनाने के लिए उस समय के राजा ने एक सती स्तंभ बनवाया जिसमे स्त्री-पुरुष की बड़ी प्रतिमायें बनी हैं, इस स्तंभ को ही सती शिला कहते हैं।
हजार साल पुरानी इस सती शिला के पास ही राजकुमारी की याद में होलिका दहन की जाती हैं। होलिका दहन के लिए 7 तरह की लकड़ियों जिसमें ताड़, बेर, साल, पलाश, बांस, कनियारी और चंदन के पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है।
सजाई गई लकड़ियों के बीच मंदिर का पुजारी केले का पौधे को रोपकर गुप्त पूजा करता है। यह केले का पौधा राजकुमारी का प्रतीक होता है।
होलिका दहन से आठ दिन पहले ताड़ पत्तों को दंतेश्वरी तालाब (मेनका डोबरा ) में धोकर भैरव मंदिर में रखा जाता है। इस रस्म को ताड़ फलंगा धोनी कहा जाता है।
पास के ग्राम चितालंका के पांच पांडव परिवार के सदस्य ही होलिका दहन करते हैं। दंतेश्वरी मन्दिर में सिंहद्वार के पास इन पांडव परिवार के कुल देवी के नाम पर पांच पांडव मन्दिर भी है।
प्रज्वलित होली का क्या करते हैं यहां के लोग –
होलिका दहन के मौके पर हजारों ग्रामीण उपस्थित रहते हैं। होली जलाने के बाद लोगो में आग की लौ के साथ उड़ कर गिर रहे, जलते ताड़ पत्रों को एकत्रित करने की होड़ लग जाती हैं।
लोक मान्यता है कि मंत्रोच्चार के बाद प्रज्वलित होली का यह जला हुआ हिस्सा काफी पवित्र माना जाता है। इसलिए लोग इसे सुख-समृद्धि की उद्देश्य से ताबीज बनाकर पहनते हैं।
दूसरे दिन रंगोत्सव में क्या होता है –
दूसरे दिन रंगोत्सव में एक व्यक्ति को फूलों से लादकर तथा होली गाली देते हुए होलिका दहन स्थल में लाया जाता हैं। यहां होली स्थल की परिक्रमा की जाती हैं।
परिक्रमा पश्चात लोग होली की राख का टीका एक-दूसरे को लगाकर होली की शुभकामनाएं देते हैं, फिर ग्रामीण दंतेश्वरी मंदिर परिसर में मिट्टी और होलिका दहन की राख एवं टेसु को फूलों से तैयार रंग के घोल से होली खेलते हैं।
बस्तर के होलिकोत्सव में ‘नाट’ आकर्षण का केंद्र होता है –
न तो होलिका दहन और न ही रंग गुलाल-वहीं जगदलपुर संभाग मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर स्थित माड़पाल गांव में आज भी राज-परिवार का ही कोई सदस्य (ग्रामीणों का राजा) होलिका दहन करता है।
राजा के दर्शनार्थ आसपास के कई गांवों के लोग एकत्र होते हैं ,लेकिन शहर से मात्र सात किलोमीटर दूर बसे कलचा गांव में होली की रात न तो होलिका दहन होता और न ही रंग-गुलाल खेला जाता। वहां रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर होलिका दहन होता है और अगले दिन होली खेली जाती है।
बस्तर के होलिकोत्सव में ‘नाट’ आकर्षण का केंद्र होता है। होली की रात जगदलपुर राजमहल से राजा या राजवंश का कोई सदस्य पहुँचता है। ग्रामीण उसे अति सम्मान व उत्साह के साथ खुद के बनाए गए काष्ठ रथ पर सवार करके पारंपरिक ढंग से होलिका-दहन स्थल तक ले जाते हैं।
मावली मंदिर के समीप ही होली खोदरा में राजा होलिका दहन करता है। इसके बाद नाट का आनंद लिया जाता है। आसपास के दर्जनों गाँवों से बड़ी संख्या में ग्रामीण जुटते हैं और सुबह ही अपने-अपने गाँवों के लिए प्रस्थान करते हैं।