लता मंगेशकर नहीं रहीं. हालांकि अस्वस्थ काफी समय से चल रही थीं, पर जब अस्पताल से हर बार लौट कर आ जाया करतीं तो देश की रुकी हुई सांसें मानो फिर चलने लगतीं. पर रविवार सुबह जब उनके निधन की खबर आई, तो लगा लता मंगेशकर के साथ-साथ पूरे देश की आवाज़ भी चली गई.‘लता मंगेशकर हिंदी सिनेमा के संगीत को परिभाषित करने वाला एक नाम है’ अगर हम ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.सुप्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह ने लता मंगेशकर के संदर्भ में कहा था ‘बीसवीं शताब्दी को तीन बातों के लिए याद रखा जा सकता है- पहला, मनुष्य का चांद पर पहली बार कदम रखना, दूसरा, बर्लिन की दीवार का गिराया जाना और तीसरा, लता मंगेशकर का जन्म होना.’
लता के गुरु अमानत अली के मित्र और उस दौर के प्रमुख संगीत निर्देशकों में से एक मास्टर गुलाम हैदर से लता का मिलना, शायद लता की जिंदगी का एक निर्णायक मोड़ माना जा सकता है. यह वही गुलाम हैदर थे, जिन्होंने विख्यात गायिका और अदाकारा नूरजहां की तलाश की थी.
लता की आवाज़ और सुरों पर पकड़ देखकर अचरज में पड़ गए गुलाम हैदर लता को फिल्मिस्तान स्टूडियो, जो एक तरह से मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता था, ले गए और उसके मालिक सुबोध मुखर्जी से मिलवाया.
मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की सबसे बड़ी बेटी लता अपने पिता से विरासत में मिली संगीत प्रतिभा और कुछ उनके साथ उनकी नाट्य मंडलियों में गा-गाकर संगीत को बचपन से ही आत्मसात कर चुकी थी. माता-पिता की बड़ी संतान होने के कारण और कुछ अपने पारिवारिक हालातों के कारण भी लता बहुत कम उम्र में ही जिम्मेदार और संवेदनशील हो गई थी.
स्वयं उनके शब्दों में, ‘पिताजी के देहांत के बाद मुझे प्रफुल्ल पिक्चर्स में जो मास्टर विनायकराव (अभिनेत्री नंदा के पिता) की फिल्म कंपनी में नौकरी करनी पड़ी. मैं सुबह उठकर थोड़ा रियाज़ करके काम पर निकल जाया करती. घर के हालात ही कुछ ऐसे थे.’
गौरतलब यह है कि पारिवारिक जिम्मेदारियों को कम उम्र में वहन करने की नियति तो बहुतों पर आन पड़ती है पर जिस ज़िम्मेदारी और गंभीरता से पंद्रह-सोलह वर्षीय लता ने घर का सरपरस्त होने की भूमिका निभाई थी वह एक ऐसे समय में जब तथाकथित आधुनिकता का लेश मात्र भी समाज में नहीं था, निश्चित ही बड़ी बात है.
लता की आवाज़ और सुरों पर पकड़ देखकर अचरज में पड़ गए गुलाम हैदर लता को फिल्मिस्तान स्टूडियो, जो एक तरह से मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता था, ले गए और उसके मालिक सुबोध मुखर्जी से मिलवाया.
हालांकि इसे किस्मत कहें या समय का दोष, लता की आवाज़ को सुनते ही खारिज कर दिया गया और वह भी इस बिनाह पर कि इतनी पतली आवाज उस दौर की बहुचर्चित अभिनेत्री कामिनी कौशल पर मेल नहीं खा पाएगी. पर हैदर हार मानने वालों में से नहीं थे और वहीं मुखर्जी के सामने ही उन्होंने लता के निमित्त अनजाने में ही एक भविष्यवाणी कर दी कि ‘एक समय आएगा जब लता की आवाज नूरजहां समेत सबको पीछे छोड़ देगी.’
और ठीक फिर उसी दिन लता को बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में ले जाया गया, जहां उन्हें फिल्म ‘मजबूर’ के लिए गाने का अवसर मिल गया. यह 1947 का साल था और स्वयं लता के शब्दों में ‘ बस मैंने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा.’
हालांकि महज़ अट्ठारह साल की लता के लिए फिल्म गायकी की राह इतनी आसान साबित नहीं हुई. ‘मजबूर’ के उस गीत के लिए लता को तकरीबन बत्तीस बार टेक देना पड़ा था.
लता के इस संघर्ष और उसके बाद मिलने वाली सफलता एक स्त्रीवादी दृष्टि से देखने पर बहुत हद तक अचंभे में डालने वाली लगती है. प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने भी कहा था कि ‘लता मंगेशकर की कहानी एक ज़बरदस्त फ़ेमिनिस्ट पटकथा से कम नहीं है.’
स्वयं लता अपने संघर्ष के इन दिनों के बारे में कहती हैं कि ‘एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो से दूसरी रिकॉर्डिंग स्टूडियो तक भागते रहने की जिंदगी बहुत ही कठिन जिंदगी थी.’ अक्सर ऐसा होता था कि देर रात रिकॉर्डिंग से घर लौटते हुए लोकल ट्रेन के डिब्बों में दिनभर की थकी-हारी लता को नींद आ जाया करती थी और अंतिम स्टेशन पर जाकर ट्रेन की सफाई करने वाली औरतें लता को जगाते हुए ट्रेन से उतरने को कहती थीं.
लता बताती थीं कि ‘पैसों का अभाव ऐसा ही था कि उतनी रात गए भी चर्चगेट से घर पैदल ही आना पड़ता था.’लता मंगेशकर तो समय की रेत पर उकेरा गया वो गहरा निशान है जिसे गुजरती घड़ियों की लहरें और गाढ़ा करती जाती हैं. उनके अवसान की घड़ी में उनके गाए हुए गीतों को गुनगुनाते हुए हमें कहना चाहिए: ‘मैं अगर बिछड़ भी जाऊं, कभी मेरा ग़म न करना…’