भोपाल की वह सुबह दर्दनाक खबर ले कर आयी, नवजात बच्चों की अस्पताल के बच्चा वार्ड में आग लगने से मौत,वे फूल जो अभी खिले भी नहीं थे बदहाल प्रशासनिक अव्यवस्था की क्रूर भेंट चढ़ गए ,सत्ता के पहरुआ अपने को बचाने की जुगत में लगे ,विपक्ष का रुख नाकारा रहा और सत्ता एवं विपक्ष बच्चों के मातम को एक पखवाड़े में ही भूल गए.सत्ता बड़ी निर्दयी होती है वह सिर्फ अपने को चमकता दिखाने में लगी रहती है,उसे आम जनता से मतलब नहीं बच्चों की प्रशासनिक ह्त्या हुए अभी 12 दिन भी नहीं बीते होंगे लेकिन सरकार जनजातीय गौरव दिवस का जश्न मनाने में मशगूल है,उसके कार्यकर्ता अटलबिहारी जी के नाम को धता बता कर रानी कमलापति के नाम का स्टेशन बनाने के जश्न से सराबोर हैं.और इस जश्न की अगुआई करेंगे भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र दामोदर मोदी जी.
दैनिक भास्कर अखबार लिखता है हमीदिया में हादसा नहीं ह्त्या है वहीँ पत्रिका अखबार भी नवजातों की ह्त्या पर दुखी है और मुखर हो कर रिपोर्टिंग करता है और उसकी हेडिंग थी आग में झुलस गए फ़ूल इसके बाद सामने आयी सत्ता की क्रूर साजिश जो अपने को बचाने के लिए चिर-परिचित जोड़-तोड़ करती नजर आयी,उसके सिपहसालार मंत्री अस्पताल में पहुंचे जरूर लेकिन मकसद घटना की विभीषिका कैसे कमतर हो बाहर जाए और उसमें वे सफल भी हुए,छन-छन के जानकारियां आती रहीं मृत नवजातों की संख्या में वृद्धि होती रही सरकार अपने 4 के आंकड़े को दुरुस्त नहीं कर पायी और मीडिया में 16 नवजातों की ह्त्या की खबर से आम जन रोने लगे.जांच हुयी छोटे जिम्मेदार अधिकारीयों पर गाज गिरी जो सम्भवतः आगे चल मुक्त भी हो जाएंगे और मृतकों के परिवार समय का मरहम लगाते चरैवेति के सिद्धांत पर आगे चल देंगे लेकिन वह क्या होना था जो नहीं हुआ ? एक सड़ा-गला सिस्टम जो जनता के सिर पर थोपा गया है,जनता बड़े अरमानों से अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने वोटों के रूप में किसी राजनैतिक दल को सौंपती है और वे सत्ता में आते ही अपनी मनमानी करने में मशगूल हो जाती हैं.
इस प्रशासनिक हत्याकांड में उचित कार्यवाही न होने का बड़ा दोषी मप्र की विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी है और निसंदेह उनके मुखिया कमलनाथ पर इसकी जिम्मेदारी बनती है ,कांग्रेस का प्रयास सिर्फ अस्पताल में दौरा,सोशल मीडिया में बयानबाजी और कैंडल मार्च तक ही सीमित रह गया ,न उन्होंने धरना दिया न उचित कार्यवाही के लिए गांधीवादी तरीके से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे,नतीजतन मंत्री और बड़े अफसर चैन की बांसुरी बजाते रहे.कमजोर विपक्ष लोकतंत्र के लिए अधिक घातक है.सम्बंधित विभाग के केबिनेट मंत्री और राज्यमंत्री को साफ़ बचा लिया गया और किसी मंत्री में नैतिकता की उम्मीद तो आज के दौर में करना ही पाप समझा जाता है.
इस दर्दनाक दौर में हमेशा की तरह कुछ मानवता से लबरेज सन्देश भी आये उनके द्वारा जो दो जून की रोटी कमाने के लिए सेवा के व्रत का पालन कर रहे हैं एबीपी के स्टेट हेड ब्रजेश राजपूत ने एक डाक्टर की आंखों देखी अपनी फेसबुक वाल पर लिखी है जिसे मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ,”भोपाल के अस्पताल में आग,,,,एक डॉक्टर की आंखों देखी,,,,
कमला नेहरू अस्पताल में उस दिन मेरी इमरजेंसी ड्यूटी थी। तीसरी मंजिल पर ही बच्चों के दो वार्ड आमने सामने थे। एक एसएनसीयू यानिकी न्यू बोर्न केयर यूनिट जिसमें 28 दिन से कम के वो बच्चे रखे जाते हैं जो पैदा होते ही किसी बीमारी का शिकार हो जाते हैं, और दूसरा वार्ड पीआईसीयू यानिकी पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट है जिसमें 28 दिन से बडी उमर के बच्चे रहते हैं। मेरी ड्यूटी पीआईसीयू में थी और रात के तकरीबन पौने नौ बजने को थे। मैं अपने वार्ड में भर्ती कुछ बच्चों के पर्चे पलट रहा था कि बाहर अचानक हडबडी और शोर सुनाई दिया तो मैं सारे काम छोडकर बाहर आया।
बाहर का नजारा देख मेरे होश उड गये। सामने की एसएनसीयू से धुआं निकल रहा था और एक वार्ड ब्वाय आग बुझाने के टेंडर उठाकर ला रहा था तो दूसरा आग बुझाने के दौरान उपयोग में आने वाला पानी का पाइप खींच रहा था। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि करना क्या है। उधर बच्चों के वार्ड में से निकलने वाला धुआं लगातार बढता ही जा रहा था।
मैंने बदहवासी में वहां खडे अपने साथी डॉक्टर से पूछा ये आग कैसे लगी और बच्चे कहां हैं। मारे धुआं के खांसते हुये वो कुछ बोल तो नहीं पाया मगर हाथ के इशारे से बताया कि बच्चे अंदर ही हैं ओह अब मुझे काटो तो खून नहीं, वो नन्हे मासूम जिन्होंने कुछ दिनों पहले ही इस दुनिया में आंखें खोली हैं जो सांस लेने के लिये भी मेडिकल इक्विपमेंट के सहारे हैं वो इस धुयें में कैसे रह पा रहे होंगे। जाने क्या मुझे सूझी और मैंने अपना मास्क नाक पर लगाया और वार्ड में घुस गया। अंदर तो और ही भयावह नजारा था। हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा था। वार्ड के कोने में वेंटिलेटर में आग लगी थी और उसी से निकल रहे धुये से अंधेरा छाता जा रहा था। वार्ड की लाइट से कुछ दिख नहीं रहा था। उधर वार्मर पोर्ट पर वो बच्चे अब तक रखे हुये थे जिनको इलाज देकर स्वस्थ करने की जिम्मेदारी हमारी थीं। मुझे तुरंत लगा कि इन बच्चों को तुरंत यहां से हटाना पडेगा।
वार्ड में इक्के दुक्के डाक्टर और नर्सिंग स्टाफ बच्चों को लगी हुयी आईवी हटाकर उठाने भी लगे थे। मुझे भी लगा समय कम है जो करना है जल्दी करना होगा। मैंने भी जो वार्मर पोर्ट सामने दिखा उसमें लेटे बच्चों की आईवी हटाई और चार बच्चे दोनों हाथों से उठा लिये। ये नन्हे नींद में ही थे। उनको नहीं मालुम था कि उनकी जान पर क्या आफत आ गयी है। इन बच्चों को लेकर मैंने दूसरे वार्ड के पलंग पर रख दिया। जहां एक दो बच्चे उसी वार्ड से लाकर रखे गये थे। तुरंत मैं पलटा और फिर गहरी सांस लेकर धुयें वाले वार्ड में घुस गया। अब नयी मुसीबत ये आई थी कि शार्ट सर्किट के कारण एसएनसीयू की लाइट भी चली गयी और अंदर कुछ भी नहीं दिख रहा था।
प्लास्टिक का जहरीला धुआं तेजी से लगातार बढता जा रहा था। मैंने जल्दी अपना मोबाइल निकाला और उसकी टार्च आन की और सामने दिख रहे पोर्ट से फिर चार बच्चों को उठाया और वार्ड से निकल कर सामने के वार्ड के पलंग पर रख दिया।
तब मैंने देखा मेरे साथी लेडी डाक्टर भी उस धुप्प अंधेरे वार्ड जहां चालीस नवजात रखे थे उनकी नाक और हाथों से आई वी निकालकर वार्ड से बाहर ला रहे हैं। उस अंधेरे कमरे में धुआं के कारण कोई भी ज्यादा देर तक ठहर नहीं पा रहा था। हम सब थोडी थोडी देर में खांसते हुये बाहर आते और फिर गहरी सांस लेकर एसएनसीयू में वैसे ही घुसते थे जैसे पानी में डुबकी लगाने के पहले कुछ लोग खूब सारी सांस भर कर उतरते हैं। ये वार्ड हमारा इतना जाना पहचाना था कि हममें से अधिकतर को मालूम था कि वार्ड में कहां क्या है क्या रखा है यही अंदाजा हमें काम आ रहा था। बच्चों को उस धुयें वाले अंधेरे कमरे से बाहर निकालने का काम इतनी तेजी से हो रहा था कि कई बार हम आपस में टकरा भी रहे थे।
वार्ड में जब गाढा जहरीला धुआं छत की ओर छा गया तो फिर मैंने पंजों के बल नीचे झुके झुके जाकर भी देखा कि किसी पोर्ट में कोई बच्चा बचा तो नहीं इस दौरान मैं उस जलते हुये वेंटिलेटर के पास भी पहुंच गया। वहां आग तो बुझ गयी थी मगर धुआं उठ रहा था। वेंटिलेटर के पास वाले पोर्ट से जब मैंने एक बच्चे को उठाया तो वो इतना गर्म था कि उठा ना सका। मगर उस नवजात के गरम शरीर ने मुझे अंदर तक ठंडा कर दिया। वो बच्चा मर चुका था। मैं उलझन में था कि उसे ले जाऊं या नहीं जाने क्या हुआ मुझे और मैंने पास की चादर खींच कर उसे लपेट कर बाहर ले आया।
बीस मिनिट की मशक्कत के बाद अब तक हम तकरीबन सभी बच्चों को निकाल चुके थे। सामने के वार्ड पर उनको एक साथ दो पलंग पर लिटाकर उनको फिर आईवी लगायी जा रही थी। उनके शरीर से धुएं को नर्म रुई से पोंछा जा रहा था। अब तक मंत्री विश्वास सारंग और हमारे सुपरिटेंडेंट भी आ गये थे। अब सब कुछ उनकी देखरेख में हो रहा था। बाहर आग लगने की खबर फैल गयी थी तो इन बच्चों के परिजन आपा खो रहे थे।
इधर हम सब डाक्टर निढाल हो गये थे आंखें धुआं खाकर लाल हो गयी थीं हर कोई खांस रहा था हाथों में काले पन की पर्त चढ गयी थी हमारे सफेद अप्रिन काले पड गये थे मास्क का पता नहीं था। मगर इन सारी परेशानियों से बढकर चेहरे पर संतोष चमक रहा था कि हमने उन नौनिहालों को आग और धुयें से बचा लिया जो हमारे भरोसे ही इन वार्डों में सांस ले रहे थे। जब मैं अपने रूम पर आया तो तड़के साढे तीन बज रहे थे। अगली सुबह फिर अस्पताल जाना था उन नवजात नौनिहालों को देखने जिनको हम सबने बिना आपा खोये आग धुएं से बचाया था।
मीडिया की बदहाली का यह आलम है की ऐसे बड़े संस्थानों के पत्रकारों को भी सच अपनी फेसबुक वाल पर लिखना होता है जिसे समाज को प्रेरित करने दिखाने की महती जरूरत है वार्ड के डाक्टरों,स्टाफ के अलावा मौजूद ऑटोचालकों एवं अन्य लोगों ने मानवता की जीवंत मिसाल सामने रखी और बचाव कार्य में मदद की.
अभी इस दर्दनाक घटना को बीते एक हफ्ता भी नहीं हुआ और सरकार जश्न मनाने में मशगूल है ,जनता का करोड़ों रुपया जनता के हित में खर्च के स्थान पर बड़ी राजनैतिक रैली में खर्च किया जा रहा है जिसका फायदा भाजपा को आगामी चुनावों में हो भी सकता है जैसा अभी तक देखने में आया है लेकिन उनके बच्चों का क्या ? वे तो आज भी कुपोषण से जूझ रहे हैं,इतनी सुविधाओं के बाद आज भी आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी,बदहाली पसरी हुयी है सिर्फ मुदा राजनैतिक लाभ का है ,जनता असमय मरती रहेगी,उसके बच्चे सामान्य जनसुविधाओं के लिए तरसते रहेंगे और झूठे लोग अपना चेहरा इसी तरह मेकअप से चमकाते रहेंगे …….. राहत बस इतनी है कि लोकतंत्र है और आप आज भी कुछ हद तक सच्चाई लिख-पढ़ सकते हैं …… जय हिन्द
अनिल कुमार सिंह (धर्मपथ के लिए )