भारत में एसिड हमलों के मामले घटने के बदले लगातार बढ़ रहे हैं. सख्त कानून बनाने के बावजूद एसिड हमलों पर अंकुश लगाने में सरकार विफल रही है. इसकी प्रमुख वजह है अपराधियों को सजा देने में देरी.
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसी घटनाएं कम होने की बजाय लगातार बढ़ रही हैं. आम तौर पर जागरुक और शांत समझा जाने वाला पश्चिम बंगाल तो एसिड हमलों के मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि ऐसे मामलों में अभियुक्तों को सजा मिलने की दर बेहद कम होना इस पर अंकुश नहीं लगने की एक प्रमुख वजह है. ज्यादातर मामलों में अभियुक्त कानूनी खामियों का लाभ उठा कर या तो बच निकलते हैं या फिर उनको मामूली सजा होती है.
दिसंबर में कुछ असामाजिक तत्वों ने बंगलुरू में एक महिला बस कंडक्टर पर एसिड फेंक दिया. उसके दो दिनों के भीतर ही मुंबई में भी एक युवती पर ऐसा हमला हुआ. उसी समय उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भी एक युवती पर एसिड हमला किया गया. ये घटनाएं दिखाती हैं कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद एसिड हमलों की घटनाएं थमने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं. एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि एसिड हमलों के मामले में पश्चिम बंगाल ने उत्तर प्रदेश को पीछे छोड़ कर पहला स्थान हासिल कर लिया है. इससे पहले वर्ष 2016 में भी बंगाल पहले स्थान पर था. उस साल राज्य में ऐसी 83 घटनाएं हुई थीं. वर्ष 2017 में ऐसे मामलों में कुछ कमी आई और कुल 54 मामले दर्ज हुए. लेकिन इस साल 53 मामलों के साथ बंगाल ने उत्तर प्रदेश को काफी पीछे छोड़ दिया है. उत्तर प्रदेश में ऐसे 43 मामले दर्ज हुए.सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के मुताबिक एसिड सिर्फ उन दुकानों पर ही बिक सकता है जिनको इसके लिए पंजीकृत किया गया है. लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद भी बाजार और दुकानों में खुलेआम धड़ल्ले से एसिड बिकता है.
सरकार ने वर्ष 2016 में दिव्यांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम में संशोधन करते हुए उसमें एसिड हमलों के शिकार लोगों को भी शारीरिक दिव्यांग के तौर पर शामिल करने का प्रावधान किया था. इससे शिक्षा और रोजगार में उनको आरक्षण की सुविधा मिलती है. ऐसे लोगों को सरकारी नौकरियों में तीन फीसदी आरक्षण का लाभ मिलता है.वर्ष 2016 में दर्ज ऐसे 203 मामलों में से महज 11 में ही अभियुक्तों को सजा मिली थी. वर्ष 2018 में दर्ज 228 मामलों में से महज एक ही अभियुक्त को सजा मिल सकी है. ह्यूमन राइट्स लॉ में एसिड हमलों के खिलाफ अभियान की निदेशक शाहीन मल्लिक कहती हैं, “समस्या कानून में नहीं, बल्कि उसे लागू करने में है. ऐसे मामले फास्ट ट्रैक अदालतों के पास भेजे जाते हैं. लेकिन वहां भी त्वरित गति से सुनवाई और फैसले नहीं होते.