1. AFSPA यानी आर्म्ड फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट एक फ़ौजी क़ानून है, जिसे ‘डिस्टर्ब’ क्षेत्रों में लागू किया जाता है। यह क़ानून सुरक्षाबलों और सेना को कुछ विशेष अधिकार देता है, जो आमतौर पर सिविल कानूनों में वैध नहीं माने जाते। सबसे पहले ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ों आंदोलन को कुचलने के लिए AFSPA को अध्यादेश के जरिए 1942 में पारित किया था।
2. भारत में संविधान की बहाली के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ रहे अलगाववाद, हिंसा और विदेशी आक्रमणों से प्रतिरक्षा के लिए मणिपुर और असम में वर्ष 1958 में AFSPA लागू किया गया था। वर्ष 1972 में कुछ संशोधनों के साथ इसे लगभग सारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में लागू कर दिया गया। अस्सी और नब्बे के दशकों में पंजाब और कश्मीर में भी राष्ट्रविरोधी तत्वों को नष्ट करने के लिए AFSPA के तहत सेना को विशेष अधिकार प्रदान किए गए।
3. AFSPA की वैधता पर समय-समय पर मानवाधिकार संगठन, अलगाववादी और राजनीतिक दल सवाल उठाते रहे हैं। उनका तर्क है कि इस क़ानून से प्रभावित क्षेत्रों के नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकारों का हनन होता है। इस क़ानून के सेक्शन 3, 4, 6 और सेक्शन 7 पर विवाद रहा है।
4. सेक्शन 3 के अंतर्गत केंद्र सरकार को ही किसी क्षेत्र को ‘डिस्टर्बड’ घोषित करने का अधिकार है। राज्य सरकारों की इसमें कोई ख़ास भूमिका नहीं होती। वहीं सेक्शन 4 आर्मी को बिना वारंट के हिरासत में लेने, किसी भी वाहन की जांच का अधिकार और उग्रवादियों के ठिकानों का पता लगाकर नष्ट करने का अधिकार देता है।
5. सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम का सेक्शन 6 फ़ौज को संबंधित व्यक्ति की संपत्ति जब्त करने और गिरफ्तार करने का अधिकार देता है। जबकि सेक्शन 7 के अनुसार इन मामलों में अभियोजन की अनुमति केवल केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृति के बाद ही होती है।
6. साल 2005 में जीवन रेड्डी कमेटी और वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्टों में सेना और सुरक्षाबलों पर काफी गंभीर आरोप लगाए थे। इसी आधार पर AFSPA पर रोक लगाये जाने की मांग की गई थी, जिससे रक्षा मंत्रालय और सेना ने असहमति जताते हुए सिरे से नकार दिया।
7. यह एक्ट सुरक्षा बलों को सशक्त करता है। इसी वजह से नगालैंड, पंजाब और कश्मीर में शांति बहाली में काफी सफलता मिली है। माना जाता है कि अधिकतर आरोप अलगाववादियों की शह पर होते हैं और सिर्फ 3% मामलों में ही सेना पर लगाए गए आरोप सही पाए गए हैं।
8. जम्मू-कश्मीर के नेशनल कांफ्रेसं, पीडीपी और वाम दलों सहित देश के कई राजनीतिक दलों ने AFSPA एक्ट में संशोधन की मांग की है। हालांकि इस पर केंद्र सरकारों की स्पष्ट राय रही है कि “आप सेना के हाथ बांधकर सुरक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते।”
9. जम्मू और कश्मीर से AFSPA हटाये जाने की मांग को लगभग सभी रक्षा विशेषज्ञ इस तर्क से खारिज करते रहे हैं कि कश्मीर के प्रति पाकिस्तान की नीति में अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है। पाकिस्तान अब भी पाक अधिकृत कश्मीर (POK) क्षेत्र का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिए करता रहा है। वहीं कश्मीर में अलगाववादी बयारें अभी तक थमीं नहीं है। ऐसे में AFSPA पर रोक लगाना राष्ट्र की संप्रभुता के लिए बड़ा ख़तरा साबित हो सकता है।
10. वर्ष 2000 में इम्फाल में कथित तौर पर असम राइफल्स के जवानों ने 10 लोगों पर गोली चला दी थी। जिसके विरोध में सामाजिक कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मीला पिछले 15 सालों से आमरण अनशन कर रही हैं।
11. मानवाधिकार समर्थक क्षेत्रीय जनता द्वारा सेना पर लगाए गए मर्डर, रेप और जबरन वसूली के आरोपों को सिविल कानूनों के दायरे में रखने की मांग करते रहे हैं। माना जाता है कि ऐसा कदम घातक होगा, क्योंकि इससे सेना पर झूठे आरोप गढे जाएंगे और सेना के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
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