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 हे कश्मीर! इतिहास से वर्तमान तक का परिवर्तन | dharmpath.com

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हे कश्मीर! इतिहास से वर्तमान तक का परिवर्तन

March 8, 2019 3:53 pm by: Category: ख़बरें अख़बारों-वेब से Comments Off on हे कश्मीर! इतिहास से वर्तमान तक का परिवर्तन A+ / A-

तुम सोए हुए हो। तुम मूर्छित हो। तुम्हारे होश-हवाश गुम हैं। तुम्हारी याददाश्त घिस गई है। तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि तुम कर क्या रहे हो? तुम्हें बिल्कुल पता नहीं है कि तुुम्हारे साथ हो क्या रहा है? जागो। अपनी आंखें खोलो। याददाश्त पर जोर डालो। जब जागे तब सबेरा। थोड़ी देर के लिए अपने लोगों से कहो कि पत्थर एक तरफ रख दें। बंदूक और बारूद भी हटा दें और जरा सोचें। सोचें कि तुम्हारी खूबसूरत घाटियों को सुलगाया किसने है? कौन यह जहर फैलाकर गया और किसने ये बम-बारूद की फसलें खड़ी की हैं? तुम्हारी असली रवायत कौन सी है? डलझील के साफ पानी में अपनी शक्ल देखो। पहचानो तुम्हारी जड़ें कहां हैं? जहर या अजहर में तुम्हारी जड़ें नहीं है। वे वायरस और थे, जो यहां जहरीला विचार लेकर आए। तुम तो भारत के माथे पर सजा एक शानदार ताज थे।

आओ मैं तुम्हें तुम्हारी जड़ें दिखाता हूं-

श्रीनगर से ही शुरू करते हैं। यहीं कहीं तो है शंकर मंदिर। पता है इसकी नींव कब रखी गई थी? याद करो। ईसा से भी दो हजार साल पहले के ब्यौरे दर्ज हैं दस्तावेजों में। इतने तूफानों के गुजर जाने के बाद भी जो बुतखाना आज सामने मौजूद है, वही 11 सौ साल पुराना होगा। गोपादित्य और ललितादित्य जैसे कश्मीर के महान शासकों की पीढ़ियों ने इस मंदिर का ख्याल सदियों तक रखा। तुम्हारी ही गोद में पैदा हुए और सिंहासन पर भी तुम्हीं ने बैठाया था ललितादित्य को। पता है कब? सन् 697 से 734 के बीच। कश्मीर के राजाओं के हजारों साल लंबे सिलसिले को “राजतरंगिणी’ में लिखने वाले महाकवि कल्हण ने ललितादित्य के बारे में बताया है कि उन्होंने श्रीनगर के पास एक पहाड़ी इलाके में संस्कृत के विद्वान ब्राह्मणों को लाकर बसाया था। वह इलाका गोपा अग्रहार के नाम से मशहूर हुआ, जिसे आज भी गुपकर कहा जाता है। गोपाद्रि की इन्हीं खूबसूरत पहाड़ियों पर कभी दूर दक्षिण से एक नौजवान संन्यासी ने कदम रखे थे। केरल के कालडि नाम की छोटी सी बस्ती से भारत भर को पैदल नापते हुए आए इस संन्यासी को संसार आदि शंकराचार्य के नाम से दिल की गहराइयों से याद करता है।

हे कश्मीर, जरा अपनी बेअक्ली पर तरस खाओ। याद करो, जब सुलतानों के अलग-अलग नामों से लुटेरे-हमलावरों ने तुम पर कब्जा किया तो नाम कैसे बदले? गोपाद्रि नाम की पहाड़ी को ये बदतमीज तख्ते-सुलेमान कहने लगे। कौन सुलेमान और कहां का तख्त? यह शंकराचार्य मंदिर है जनाब। आदि गुरू शंकराचार्य ने यहीं लिखी थी “सौंदर्य लहरी’ और घाटी की हवाओं में उन्होंने इसे यहीं गाया-गुनगुनाया होगा। अक्ल के अंधे और कान के कच्चे कश्मीर, कभी खामोश होकर अपने लोगों को घाटियों की फिजां में वह आवाज सुनने को कहो! शंकर ही तुम्हें होश में ला सकते हैं।

अब अनंतनाग के पास मार्त्तंड मंदिर के खंडहरों की तरफ निगाह करो। यहां के काले पत्थरों को कभी टटोले। वे जख्मी हैं। जख्म रिस रहे हैं अब तक। पहाड़ों की वीरानी में सदियों से खड़े कुछ कह रहे हैं। कभी इन बेमिसाल इमारतों को पूरी आंखों को खोलकर देखो। उनसे बात करो। वे राजा ललितादित्य के बनाए भव्य सूर्य मंदिर के अवशेष हैं। मंदिर की बुनियाद तो उनसे भी तीन सौ साल पहले की है। तुम्हारे गिलानियों, अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों और भट्‌टों के ही पुरखों ने अपने बेहतरीन हुनर को पत्थरों पर ढालकर दुनिया के सामने पेश किया था। छह सौ सालों तक यहां जबर्दस्त रौनक बिखरी रही। आदि शंकराचार्य भी यहां आए ही होंगे। फिर कोई और लोग भी आए, जो तंग दिमाग थे। जिन्होंने घाटी पर कब्जे किए। तुम्हारे पुरखों को जलील किया। औरतों-बच्चों को गुलाम बनाया। तुम्हारी पहचान, तुम्हारी शक्ल-सूरत बदलने की नापाक कोशिशें शुरू कीं। फरेब था वह। जबर्दस्ती थी वह। बेइज्जती थी वह। तुम कहां इसमें फंसे रह गए?

अब जरा कुंडलवन नाम की जगह को खोजो। वह कहां और किस हाल में है। उसके पास भी सुनाने के लिए कई चमकदार कहानियां हैं। तुम्हें पता होना चाहिए कि कुंडलवन श्रीनगर के पास ही था। ललितादित्य से सात सौ साल पहले और आदि शंकराचार्य के आने के आठ-नौ सौ साल पहले यहां गौतम बुद्ध के नाम की धूम मची थी। कनिष्क नाम का एक महान राजा हुआ है, जो पुरुषपुर से राज करता था। यह ईसा की पहली सदी के वाकये हैं। सन् 78 के आसपास। उसने मुल्क भर से तथागत के 500 अनुयायी विद्वानों को यहां इकट्‌ठा किया था। बौद्ध धर्म की तारीख में दर्ज है वह चौथा सम्मेलन जब नामचीन विद्वान वसुमित्र की सदारत में हुए इस बड़े जलसे में बुद्ध की तालीम को दस्तावेजों पर लाने की शुरुआत हुई थी। अश्वघोष जैसे प्रसिद्ध बौद्ध उनके सहयोगी थे। तब श्रावस्ती से लेकर सारनाथ, सांची और अमरावती के बाद विशाखापट्‌टनम तक के बौद्ध विद्वानों ने इसमें शिरकत की थी। यहां एक बड़ा फैसला हुआ था। इसमें तय किया गया था कि तथागत की कही हर बात को दस्तावेज पर लाया जाए। यह काम बाद के बारह सालों तक चलता रहा।

कहते हैं कि बुद्ध का विचार यहीं से हीनयान और महायान के दो रास्तों पर चल पड़ा था। बौद्धों के इस ऐतिहासिक मोड़ का भी गवाह है। इन सबकी कितनी शानदार यादें हैं तुम्हारी? क्या वाकई सब कुछ भूल गए हो तुम? एक पल के साेचो। कभी वसुमित्र, अश्वघोष, ललितादित्य, आदि शंकर आज आकर श्रीनगर और अनंतनाग में तुम्हारी कौम के बीच आकर देखें तो क्या सोचेंगे? वे क्या कहेंगे कौम की शक्ल और अक्ल को देखकर। क्या वे खुद को जलील होता हुआ महसूस नहीं करेंगे। क्या वे श्रीनगर को श्रीहीन हो चुका महसूस नहीं करेंगे?

अपने असली पुरखों की तलाश तुम्हें कल्हण की “राजतंरगिणी’ में करना चाहिए। पता है कल्हण कब हुए? वे कश्मीर के एक और महाराजा हर्षदेव के महामात्य के दानिशमंद बेटे थे। कश्मीर की कोख से पैदा हुए एक काबिल बेटे। यह 1068 से 1101 के बीच का वाकया तुम्हारी याददाश्त में दर्ज है। यह महमूद गजनवी के नाम से आई तबाही के समय की बात है कि तब यहां कौन सा गुलशन फलफूल रहा था। कल्हण ने महाभारत काल से लेकर अपने समय तक यानी 1147 तक के उन राजवंशों की परंपरा को लिख डाला, जिन्होंने घाटी पर अपनी हुकूमत चलाई और भारत की सभ्यता और संस्कृति में चार चांद जड़े। उस दौर में “गुरू का अर्थ आदि गुरू शंकर’था। आज की बदकिस्मत कौम ने गुरू के मायने अफजल गुरू तक ला गिराए। शर्म से डूब मरो। लानत है तुम पर। किस बहकावे में इतने बेगैरत हो गए? कहां से कहां आ गिरे कश्मीर! कभी तो पलटकर देखो!

हे कश्मीर, श्रीनगर के पास ही कहीं है सिमपुर गांव। यहीं लल्लेश्वरी पैदा हुई थीं 1320 में। नाम सुना है लल्लेश्वरी का। पद्मपुरा में उनका विवाह हुआ था। लल्लेश्वरी के बारे में नुंद ऋषि, जिन्हें बाद में इस्लाम कुबूल करने वालों ने शेख नूरुद्दीन नूरानी कहा, कहते हैं-“उन्होंने ईश्वरीय प्रेम का अमृत पी लिया है। हे मेरे ईश्वर, मुझे भी वैसा ही तर कर दे!’ नुंद ऋषि कुलगाम जिले के कैमोह गांव में लल्लेश्वरी के बाद पैदा हुए थे। वह 1378 की बात है। लल्लेश्वरी शिव की परम उपासक थी। शैव परंपरा का गढ़ रहा है कश्मीर जहां लल्लेश्वरी ने कहा-“शिव हर जगह हर प्राणी में हैं, वे हिंदू-मुस्लिम में भेद नहीं करते, ज्ञानी हैं तो स्वयं को जानें, अंदर टटोलने से ईश्वर मिल जाएगा…।’ क्या अपना मूल सब कुछ भूल गए हो?

और अब कुछ कड़वी यादें। अगर बीते हुए कल की अच्छी बातें तुम्हारे जेहन में न बची हों तो ये जख्म तो अगली हजार पुश्तोें तक याद रहने चाहिए थे। मई 1675 की कुछ याद आती है तुम्हें। आंख बंद करके भीतर झांकों और याद करो। कुछ नजर आया? मैं बताता हूं वहां क्या दिख रहा है। मुझे घाटी में कृपाराम नाम के नेक और बहादुर शख्स नजर आ रहे हैं, जो कश्मीरी पंडितों के एक दल के साथ आनंदपुर आए हुए हैं। वे तेगबहादुर नाम के एक बहुत ही शानदार और असरदार शख्स की शरण में आए हैं, जो सिखों के गुरू हैं। कृपाराम उन्हें बता रहे हैं कि किस तरह कश्मीर में उनका जीना मुहाल हो गया है। उन्हें अपना धर्म छोड़ने और इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें उम्मीद है तेग बहादुर कोई तजबीज बताएंगे। तेग बहादुर का एक बेटा वहीं खेलते हुए गुरू के निकट आया और उन्हें फिक्र में देखकर वजह पूछनेे लगा। वह बच्चा कोई और नहीं गोविंदराय है, जो बाद में गुरू गोविंदसिंह के नाम से दुनिया भर में जाना-माना गया। तेग बहादुर अपने बहादुर बेटे को कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक कहानी कृपाराम के सामने ही सुनाते हैं-“इनके धर्म को बदला जा रहा है। कोई महापुरुष अपनी जिंदगी कुर्बान करके इस मुसीबत से छुटकारा दिला सकता है।’ गोविंद राय गंभीर होकर जवाब देते हैं-“आपके बिना और कौन महापुरुष हो सकता है।’ गुरू तेग बहादुर अपने बेटे के जवाब से खुश होते हैं और कश्मीरियों से कहते हैं कि जाकर अपने सूबेदार काे कह दो कि यदि गुरू तेग बहादुर इस्लाम कुबूल लेते हैं तो बाकी हिंदू भी ऐसा ही कर लेंगे। कृपाराम और उनके साथ आए कश्मीरी पंडितों को राहत महसूस होती है। कोई तो चट्‌टान बनकर उनके बचाव के लिए आगे आया। वे खुश होकर कश्मीर लौटते हैं और गुरू का यही जवाब देते हैं। तेग बहादुर का जवाब घाटी में घूमफिर कर दिल्ली तक जा पहुंचा। तब अपने बाप को कैद करके तीनों भाइयों और भतीजों को मौत के घाट उतारकर बादशाह बन बैठे बदनाम औरंगजेब की हुकूमत दिल्ली में थी।

हे कश्मीर, तुम्हें यह दृश्य अपनी आंखों में रखना चाहिए कि औरंगजेब ने तेग बहादुर को कैद करवाया। उन्हें दिल्ली लाया गया। गुरू तेग बहादुर को लोहेे के  पिंजरे में कैद करके रखा गया। अब सीधा उन्हें ही इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया गया। कोई इस्लाम कुबूल करने से इंकार करे, यह सबसे बड़ी नाफरमानी थी। तेग बहादुर कोई मामूली इंसान नहीं थे। दिल्ली के चांदनी चौक में 11 नवंबर 1665 की तारीख के कुछ दिल दहलाने वाले नजारे हैं। जरा झांककर देखो। गुरू का सिर कलम कर दिया गया। उनका कटा हुआ शीश आनंदपुर ले जाया गया अंतिम संस्कार के लिए। धड़ का अंतिम संस्कार किसी और ने किया। हिंदुस्तान की तवारीख ने गुरू तेग बहादुर को “हिंद की चादर’ के रूप में याद रखा है। इतनी बेरहमी से अपनी ही गर्दन कटते हुए और अपना ही खून बहते उन्होंने तुम्हारे लिए देखा था।

मेरे कश्मीर, तुम्हें अपनी कौम को यह भी बताना चाहिए कि औरंगजेब ने गुरू तेग बहादुर को अकेले ही नहीं पकड़ा था। उनके तीन सबसे करीबी साथी भी गिरफ्तार किए गए थे। इनके नाम हैं-भाई मतीदास, भाई दयाला और भाई सतीदास। भारत के धर्म की रक्षा के लिए कश्मीरी कृपाराम को दिए वचनों की खातिर क्रूर मुगलों के हाथों तीनों एक के बाद एक मारे गए। अपने गुरू की तरह वे इस्लाम के नाम पर झुके नहीं, डरे नहीं। कोई भी हो, वह धर्म ही दो कौड़ी का है, जो लालच से या तलवार के जोर से जबर्दस्ती कुबूल कराया जाए। चांदनी चौक में ही जिंदा मतीदास के शरीर के दो टुकड़े किए गए। यह सब देख रहे भाई दयाला ने इसके बावजूद इस्लाम को नहीं स्वीकारा। इंसाफ पसंद काजी साहब ने उन्हें अलग तरीके से मारने का हुक्म दिया। उन्हें उबलते हुए पानी में मरने तक बिठाया गया। दयाला गुरबाणी पढ़ते हुए अपने गुरू के रास्ते गए। यह सब देखते हुए आखिर में सतीदास बचे थे। उन्हें रुई में बांधकर आग लगाकर जिंदा जला दिया गया! चांदनी चौ की सड़कें उनके खून से तर हुईं। चांदनी चौक की हवाओं में वह धुआं घुला गया। गुरू तेग बहादुर और उनके तीनों सिखों के महान बलिदान का कर्ज है कश्मीरियों पर। भूल गए तुम?

अब वाकियानवीस ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद से सुनो कि घाटी में मजहब का जहर फैलना कब से शुरू हुआ? यह 1315 के आसपास का वाकया है। ख्वाजा ने अपनी किताब “तबकाते-अकबरी’ में दर्ज किया है-यह बात छिपी नहीं रहनी चाहिए कि कश्मीर की हुकूमत सदा राजा लोगों के पास रही है। 1315 के आसपास राजा सरदेव का राज था। उसके समय एक शाहमीर नाम के शख्स तशरीफ लाते हैं। शाहमीर खुद को शाहमीर बिन ताहिर आल बिन आले शाशब बिन गर्शास्प बिन नेफरोज कहते हैं और अपने वंश को पांडवों में से एक अर्जुन तक ले जाते हैं। सरदेव की माैत के बाद उनका बेटा रंजन राजा हुआ। शाहमीर उसके वजीर हो गए। रंजन की मृत्यु हुई तो सरदेव का एक रिश्तेदार कंधार से आकर राजा बन गया। वह राजा उदन था। शाहमीर के दो बेटे जमशेद और अली शेर भी ऊंचे ओहदों पर आ टिके।

एक बार धोखे से शाहमीर ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया। यहां से “वायरस’ फैला और सदियों के लिए घाटी की तबियत बिगाड़ गया। फिर नाम बदलते गए। नक्शे बदलते गए। पहचानें बदलती गईं। सिलसिला 47 से होकर आज तक चला आया। 1346 में उदन की मृत्यु हो गई। उसकी रानी कोपादेवी ने सरदेव के बेटे रंजन को राजा बनाने की बात शाहमीर से की लेकिन अब तक फरेबी और धोखेबाज शाहमीर इतना ताकतवर हो चुका था कि वह खुद कश्मीर की किस्मत लिखने को आमादा था। कोपादेवी ने झुकने की बजाए उससे लड़ाई की। वह हार गई। बंदी बना ली गई। शाहमीर ने कश्मीर की इस इज्जत को अपने हरम में लाकर रखा। उसे इस्लाम कुबूल करा दिया गया। अगले ही दिन शाहमीर ने खुद को कश्मीर का सुलतान शम्सुद्दीन घोषित किया।

वाकियानवीस निजामुद्दीन अहमद यहां से घाटी में इस्लाम की शुरुआत मानता है। इसके बाद शाहमीर के चार बेटे सामने आते हैं। सबने बारी-बारी से 32 साल तक राज किया। हिंदू राजघरानों और अवाम की लगातार लूट और मारकाट की कहानी घाटी से चल पड़ी। इस भयानक फरेब के कदम तुम्हारे दामन में पड़े और तुम्हें अब तक रौंदते रहे, गजब है कि तुम्हें और तुम्हारी भटकी हुई कौम को कुछ भी याद नहीं रहा!

और आगे सुनो प्यारे। इन्हीं चार बेटों में आखिरी था हिंदाल, जो कुतुबुद्दीन के नाम से सुलतान बना। वह 15 साल तुम पर लदा रहा। उसके दो बेटे थे। तुम्हारी खून से सनी तारीख में एक नाम और आता है सिकंदर बुतशिकन का, जिसने पूरे 22 साल 9 महीने और 6 दिन तक कहर बरपाया। उस मजहबी पागल ने बहरारे के एक प्राचीन शिव मंदिर को इस कदर तुड़वाया कि नींव तक खोदकर उसमें पानी भरके ही लौटा। उसने सियह भट्‌ट नाम के एक धर्मांतरित मुसलमान को अपना वजीर बनाया। अपने नाम के साथ “भट्‌ट’ लिखने वाले इस वजीर ने चार सालों तक अपने ही मूल धर्म के लोगों का जीना हराम करके रखा। हजारों हिंदू घाटी छोड़ने को मजबूर हुए और कुछ ने तो खुदकुशी तक की। सिकंदर बुतशिकन ने पुराने भव्य मंदिरों से सोने, चांदी और तांबे की अनगिनत मूर्तियों को तुड़वाकर उन्हें  गलवा डाला था ताकि सिक्के ढलवाए जा सकें। और ऐसा उसने लगातार किया। उसने बड़े पैमाने पर कश्मीरियों को मुसलमान बनने पर मजबूर किया। ब्राह्मण माथे पर टीका नहीं लगा सकते थे। खुद को बुतशिकन यानी मूर्तियों को तोड़ने वाला कहने वाले इस शैतान का बेटा अगले 52 साल तक तुम्हारी छाती पर मूंग दलता रहा।

हे कश्मीर, क्या तुम्हें कुछ याद नहीं कि नफरत और खूनखराबे का जहर तुम्हारी रगों में घोलने वालों ने तुम्हारे और तुम्हारी कौम के साथ क्या सुलूक किया था? यह तो बहुत पुराने किस्से भी नहीं है। कुछ सौ साल पहले की ही बात है और यह तो शुरुआत थी तुम्हारी शक्ल बिगाड़ने की। शक्ल बदलने से अक्ल भी बदल जाती है यह तो अजीब बात है! फिर मुगलों के आगरा-दिल्ली में काबिज होने तक ऐसे कई सुलतान आते गए। हरेक ने तोड़फोड़ और खूनखराबे की इबारतें लिखीं और आखिरकार शिव और बौद्ध की रवायतों वाली तुम्हारी पाक जमीन मुगलों की ऐशगाह बन गई। अफीमची और शराबी बादशाह जहांगीर ने श्रीनगर के शालीमार बाग में ही लिखवाया था कि धरती पर कहीं जन्नत है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। जब जन्नत यहीं थी तो कश्मीरी कौम और किस जन्नत के लिए घाटी को दोजख बनाने पर उतारू हो गई?

सन् 47 आते-आते पाकिस्तान नाम का एक विष कुंड पैदा हो गया। जहर का कारखाना। आतंक की मशीन। उसके बाद का ब्यौरा तो सबको पता है। तुम्हारी कौम किस कदर बहकावे में पड़ी है, यह दुनिया को साफ नजर आ रहा है। जिन हाथों ने कभी ललितादित्य के महान मंदिर बनाए, जिनके गले कभी आदि शंकर की स्तुतियां गाते रहे, जिन आंखों ने लल्लेश्वरी को देखा और सुना, उन हाथों से पत्थर बरस  रहे हैं, उनके गले पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे बुलंद कर रहे हैं और उन आंखों में खून उतरा हुआ है! पागल तो नहीं हो गए हो?

और देखो, सन् 47 के बाद से क्या मचा रखा है। ये शेख चिल्ली कहां से आ गए? ये 370 का  थेगड़ा तुम्हारे गले में कौन टांग गया? उतार फैंको इसे। तुम्हें इन सत्तर सालों में हमारे सिनेमा के बेहतरीन अदाकारों ने तुम्हारी खूबसूरती को सबसे ज्यादा सुने गए गीतों में किस अंदाज में ढाला है। देवानंद, शशि कपूर, राजेश खन्ना, विश्वजीत, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जितेंद्र, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, आशा पारेख, नंदा, हेमामालिनी, रेखा, श्रीदेवी जैसे अनगिनत नाम हैं, जिन्होंने रुपहले परदे पर कश्मीर की वादियों की तरफ पूरी दुनिया को लुभाया। और उधर सरहद पार जो तुम्हारा ही हिस्सा है वहां क्या पनपा? वहां अजहर का जहर फैला। जैशे-मोहम्मद का जहर। जहर से भरे ये घड़े घाटी में शम्सुद्दीन ही लेकर आया था, जो जैश और हुर्रियत के हाथों तक चले आए। मगर यह भी याद रखो, जहर को हलक में उतारने का हुनर हिंदुस्तान को उसी शिव ने सिखाया, जिसकी शानदार परंपराओं की गवाह तुम्हारी हरी-भरी घाटियां हैं। शैव परंपराओं का गढ़ रहे हो तुम!

अब बोलो, तुम्हें ललितादित्य में अपनी मूल रवायतें नजर नहीं आतीं? आदि शंकराचार्य की सौंदर्य लहरी के किसी श्लोक की गूंज तुम्हारे कानों में बची? कल्हण ने जिन राजवंशों का जिक्र किया, उनमें तुम्हारा अपना कोई नहीं था? तुम्हें लल्लेश्वरी में अपने ही लहू की कोई पुकार सुनाई नहीं देती? गुरू तेगबहादुर के सामने आनंदपुर गए अपने अपमानित पुरखों का कोई आंसू तुम्हें अपने गालों पर ढुलकता हुआ महसूस नहीं होता? हिंद की चादर का कर्ज कौन चुकाएगा, सोचा कभी तुमने? जिन अल्लामा इकबाल के कलाम गा-गाकर सुनाए जाते हैं, वे भी कश्मीर के थे। उन्हें अपने सप्रू गोत्र के ब्राह्मण पुरखों पर नाज था। मगर आखिरकार उन पर भी जहर का ही असर तारी रहा। वर्ना वे कौमी तराने को सुधारकर क्यों कहते-“मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा!’ बाप का राज समझ रखा है। असली बापों को भुला भी रखा है। जाने किस-किस से बल्दियतें जोड़ रखी हैं। पागलखाना बना दिया है जन्नत को!

ये धोखेबाज शेख, गिलानी, बट, डार भी अपनी गिरेबां में झांकें तो चार-छह सौ साल पहले उनका कोई मजबूर कृपाराम जैसा पुरखा सिकंदर बुतशिकन या औरंगजेब के टुकड़खोरों के सामने रहम की भीख मांगता हुआ नजर आएगा। उन्हें अपनी ही किसी मां, बहन, बेटी या बहू की चीख किसी के हरम से सुनाई देगी, जिसकी कोख से फिर इनकी ही सूरतें नजर आएंगी, जो आज भारत के माथे पर पत्थर फैंक रहे हैं, पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलकर अपने ही मुल्क से दगाबाजी कर रहे हैं। कोई अब्दुल्ला, कोई महबूबा, कोई मुफ्ती, कोई गिलानी, कोई भट। सिर्फ सात सौ सालों में ही इनकी अक्ल और शक्ल दोनों ही घाटी में घास चरने चली गईं। याद रखो, शिव का अमृत तुम्हारी विरासत है, जहर या अजहर नहीं।

मैं श्रीनगर के बाशिंदों से पूछना चाहता हूं जरा अपने दानिश्वर बुजुर्गों से बात करें। अगर कहीं बच गए हों तो किताबघरों में जाएं। पुराने मंदिरों की में ताकाझांकी करें। कुछ और न हो तो कहीं से हरी चादर लाकर गूगल बाबा की मजार पर ही मुंह कर लें। शायद आदि शंकर की यादें कहीं अल्फाजों में दर्ज मिलें और बुद्ध के संघ की पुकारें भी सुनाई दें। कभी सोचो तुम्हारी कौम का क्या रिश्ता था उनसे? तब वे कौन सी जिंदगी जी रहे थे? वे किसकी संगत मेें थे?

हे मेरे कश्मीर, अपने दिमाग को हिलाओे! याद करो। क्या थे तुम? क्या हो गए? ये क्या हुआ कि पुलवामा में एक आदिल बम बांधकर चालीस अपने ही भाइयों को ले मरा? किसने किसको मारा? क्यों मारा और कौन मरा? कौन बचा? कुछ तो बोलो…

विजय मनोहर तिवारी

स्वराज्य से साभार

 

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