लखनऊ, 3 नवंबर – घटना 570 ई. की है, जब अरब की सरजमीं पर दरिंदगी अपनी चरम सीमा पर थी। तब ईश्वर ने एक संदेशवाहक (पैगम्बर) भेजा, जिसने अरब की जमीन को दरिंदगी से निजात दिलाई और निराकार ईश्वर (अल्लाह) का परिचय देने के बाद मनुष्यों को ईश्वर का संदेश पहुंचाया, जो अल्लाह का ‘दीन’ है। इसे इस्लाम का नाम दिया गया। ‘दीन’ केवल मुसलमानों के लिए नहीं आया, वह सभी के लिए था, क्योंकि बुनियादी रूप से दीन (इस्लाम) में अच्छे कार्यो का मार्गदर्शन किया गया है और बुरे कार्यो से बचने व रोकने के तरीके बताए गए हैं।
जब दीन (इस्लाम) को मोहम्मद साहब ने फैलाना शुरू किया, तब अरब के लगभग सभी कबीलों ने मोहम्मद की बात मानकर अल्लाह का दीन कबूल कर लिया। मोहम्मद के साथ मिले कबीलों की तादाद देखकर उस समय मोहम्मद के दुश्मन भी मोहम्मद साहब के साथ आ मिले (कुछ दिखावे में और कुछ डर से)। लेकिन वे मोहम्मद से दुश्मनी अपने दिलों में रखे रहे।
मोहम्मद के आठ जून, 632 ई. को देहांत के बाद ये दुश्मन धीरे-धीरे हावी होने लगे। पहले दुश्मनों ने मोहम्मद की बेटी फातिमा जहरा के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाजा टूटकर फातिमा जहरा पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गईं।
फिर कई वर्षो बाद मौका मिलते ही दुश्मनों ने मस्जिद में नमाज (ईश्वर की उपासना) पढ़ते समय मोहम्मद के दामाद हजरत अली के सिर पर तलवार मार कर उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने मोहम्मद के बड़े नाती इमाम हसन को जहर देकर शहीद किया।
दुश्मन मोहम्मद के पूरे परिवार को खत्म करना चाहते थे, इसलिए उसके बाद मोहम्मद के छोटे नाती इमाम हुसैन पर दुश्मन दबाव बनाने लगे कि वह उस समय के जबरन बने खलीफा ‘यजीद’ (जो नाम मात्र का मुसलमान था) का हर हुक्म माने और ‘यजीद’ को खलीफा कबूल करें।
यजीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें। यानी मोहम्मद के बनाए हुए दीन ‘इस्लाम’ को बदल दें। इमाम हुसैन पर दबाव इसलिए था, क्योंकि वह मोहम्मद के चहेते नाती थे। इमाम हुसैन के बारे में मोहम्मद ने कहा था, ‘हुसैन-ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन’ यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझे दुख दिया।
उस समय का बना हुआ खलीफा यजीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यजीद ने हुसैन को कत्ल करने की योजना बनाई।
चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्के पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, फिर हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।
जब दुश्मनों की फौज ने हुसैन को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार ‘हजरत हुर्र’ अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाए।
यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यजीद की शर्ते नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमांे में पानी जाने पर रोक लगा दी गई।
तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्ते मान लेंगे।
जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे, “मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीन ‘इस्लाम’, जो नाना (मोहम्मद) लेकर आए थे, वह बचा रहे।”
10 अक्टूबर, 680 ई. को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई जंग तो कहना ठीक न होगा, क्योंकि एक ओर लाखों की फौज थी, दूसरी तरफ चंद परिवार और उनमें कुछ मर्द, लेकिन इतिहासकार जंग ही लिखते है। वैसे इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 मर्द थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे।
इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया।
इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरतों व बीमार मर्दो व बच्चों को बंधक बना लिया। जो लोग अजादारी (मोहर्रम) मनाते हैं, वह इमाम हुसैन की कुर्बानियों को ही याद करते हैं।