Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/load.php on line 926

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826
 अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए | dharmpath.com

Monday , 25 November 2024

Home » सम्पादकीय » अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

imagesदीपावली अर्थात आलोक का विस्तार। पराजित अमावस्या का उच्छवास, घोर अंधकार का पलायन, आलोक सुरसरि का धरती पर अवतरण है दीपावली। आकाश के अनंत नक्षत्र मंडल से धरा की मूर्तिमान स्पर्धा है दीपावली। मनुष्य की चिर आलोक पिपासा के लिए चहुं दिसि आलोक वर्षा है दीपोत्सव का पर्व। अंधकार पर प्रकाश की विजय का आनंद है दीपावली। यह आत्म साक्षात्कार का दिवस है। दीपावली पर तेल से भरा जलता हुआ छोटा सा दीपक यह संदेश देता है कि तिल-तिल कर जलना और प्रकाश बिखेरना जिस प्रकार दीपक का धर्म है, उसी प्रकार उत्सर्ग मानव धर्म हैं उत्सव का उद्देश्य होता है आपस में खुशियां बांटना। अगर कोई अकेला है और दुखी भी तो उसे साथ लेकर उल्लासित हो।

जहां निराशा का अंधेरा नजर आए वहां दीपक जलाकर उत्साह का प्रकाश बिखेरा जाए। पर आज तो चारों ओर घोर निराशा का साम्राज्य है। अन्धकार स्थापित हो चुका है। ऐसे समय में अन्धेरों से जूझने की आस्था कहां से आए। प्रकाश की किरणों को किस सूरज में ढूंढ़ा जाए। सर्वत्र निराशा का माहौल है। निराशा के इस दौर में आस्था को कैसे पाएं।

आज दीये सिसक रहें हैं और बाती अपनी बेबसी पर रो रही है। गोदामों में अन्नपूर्णा सड़ रही है लेकिन भूख से मौतें जारी हैं। व्ससनों की आग में? देश के भविष्य को उजाला दिखाया जा रहा है। इन अंधेरों के सौदागरों को पता ही नहीं है कि उनकी मुनाफाखोरी, कालाबाजारी, मिलावटखोरी ने कितने ही घरों के चिरागों को बुझा दिया है। इस मानसिकता का दमन ही दिवाली का उत्सव है। चारो तरफ फैले दीये की रौशनी तले कितना अंधेरा है यह समझने के लिए हमें बस अपने आस-पास निहारने भर की जरूरत है।

लाखों-लाखों दीपशिखाएं चुपचाप आवाजें दे रहीं हैं। खुशहाली में सराबोर यह त्योहार लाखों आंसुओं में डूबा हुआ है। इस देश में दर्जनों की संख्या में बहू को, पहली ही दीपावली में, दहेज के नाम पटाखों के हवाले कर दिया जाता है।

विडंबना है कि किसी घर से मीठे के डिब्बे बासी होने पर फेंके जाएंगे तो कोई कई रातों बाद भी आज भी भूखा सोएगा। किसी घर के बच्चे तीन-चार जोड़ी कपड़े बदलेंगे, तो किसी के तन पर आज भी चिथड़े नहीं होंगे। कोई अमीर आज कुत्ते का घर भी सजायेगा पर किसी गरीब की बरसों से टूटी झोपड़ी में आज भी अंधेरा छाया रहेगा।

सामयिक परिप्रेक्ष्य में बदलते युग संदर्भो के साथ आज दीपावली की मान्यताओं में भी अन्तर आ चुका है। आज से एक डेढ़ दशक पहले हफ्ते भर पहले से ही बच्चे हथौड़ा लिए बिंदी वाले पटाखे बजाते नजर आते थे। रॉकेट चलाने के लिए खाली बोतलें ढूंढ कर रख ली जाती थी। पटाखों में भी बहुत बदलाव आया है। घर की पुताई साल में दीवाली पर ही होती थी तो विद्यालय से 1-2 दिन की छुट्टी इसी बहाने से ली जाती थी। अब डिस्टेम्पर आदि तरह तरह के आधुनिक एडवांस रंगों ने हर साल की पुताई पर कंट्रोल किया है।

मिठाइयां नमकीन की कहें तो घर में ही सभी मिष्ठान बनते थे। लड्डू, मट्ठी तो महीना भर के लिए बन जाते थे और अम्मा को मिठाई पर ताला भी लगाना पड़ता था। अब कैलोरी फ्री, शुगर फ्री मिठाई का फैशन है सिर्फ दिवाली ही नहीं दिवाली के साथ शुरू हुई त्योहारों की श्रृंखला पास पड़ोस, सम्बन्धी, मित्रों के साथ मिलकर धूमधाम से मनाई जाती थी। अब हम सिमट रहे हैं अपने अपने दायरों में और दिवाली एसएमएस, ई-ग्रीटिंग, मिठाई, उपहारों का औपचारिक आदान-प्रदान, औपचारिक दिवाली मिलन समारोह जैसा 1-2 घंटे का कार्यक्रम कर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं।

दीपावली की रात्रि में अब मिट्टी के दीये के स्थान पर मोमबत्तियां और बिजली की झालर लगाने में दीपावली का मूल उद्देश्य कहीं भी दृष्टिगत नहीं होता है। दीपोत्सव के उपलक्ष्य में सजे बाजारों की चमक-दमक और स्वार्थोल्लास में बहुत सारे लोग ऐसे भी होते हैं जो बाजार के किनारे पर ही खड़े रह जाते हैं। वे तो बस देख कर ही संतोष कर लेते हैं।

हर दिवाली यही सवाल मेरे मन में गूंजता है कि जो ‘बाजार’ में अपने होने का प्रमाण नहीं दे सकते क्या उनके लिए त्योहारों का कोई मतलब नहीं है? मुझे नहीं लगता त्योहार इसलिए मनाए जाते हैं कि हम ज्यादा से ज्यादा अपनी लालसा को तृप्त’ करें।

मेरा मानना है कि त्योहार हमें त्याग सिखाते हैं। समाज में दूसरे के प्रति संवेदनशीलता और सहअस्तित्व से जीना सिखाते हैं। अपनी अतृप्त लालसा पूर्ति की जगह जरूरतमंद की जरूरत को पूरा करने का संदेश देते हैं। पता नहीं मयार्दा पुरुषोत्तम राम जी के आने के बाद अयोध्या में दीपावाली कैसे मनाई गयी थी लेकिन मैं खेतों में दीपक रखते हुए बड़ा हुआ हूं। खेत की मेड़ पर दीपक रखा तो उस मिट्टी के प्रति सहज अपनापन हो गया।

समझने की बात है कि घर के मुंडेर पर दीपक इसलिए नहीं रखते कि पड़ोसी से प्रतियोगिता करनी है। मेरा घर जगमग हो तो पड़ोसी का भी हो। मेरे आंगन में ही अकेली रोशनी क्यों हो, दूसरे के आंगन में मेरे आंगन से ज्यादा रोशनी हो। आस-पास हर घर में दीपक जले इसकी एक अघोषित चिंता और व्यवस्था का संस्कार ले कर बड़े हुए हैं हम।

आज की पीढ़ी में यह संस्कार पश्चिमीकरण की आंधी में शिथिल अवश्य होने लगे हैं, पर समाप्त नहीं हुए हैं। हां, मात्रा का भेद जरूर आ गया है। समय की धारा को मोड़ने का साहस रखने वाला मनुष्य स्वयं ही खो गया है। पर जो नया सृजन कर रहा है उसे अन्धकार कब तक दबा सकता है। वह तो अन्धकार को चीरकर बाहर निकल जाएगा और पूरे वातावरण में आलोक भर देगा।

जीवन में मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, मानव जीवन में वास्तविक मूल्यों का प्रकाश भरना ही वक्त की आवाज है। सदाचार बनाम भ्रष्टचार, सच्चरित्रता बनाम चरित्रहीनता, साक्षरता बनाम निरक्षरता, मूल्य बनाम अवमूल्यन आदि की परिस्थिति से गुजरते हुए हमारा जीवन व्यतीत होता है। सभी शबनामों का मर्म एक ही है उजाला बनाम अंधेरा। ईमान का उजाला कदाचार के समक्ष धूमिल होता जा रहा है। आज तिहाड़ में लोकतंत्र की संसद लगती है। ये हमारे चरित्र में मिलावट कर रहे हैं।

ध्यातव्य हो कि भारत के चरित्र की रक्षा के लिए ही राम ने चौदह वर्षो तक वनवास किया एवं रावण का नाश किया। कृष्ण ने गीता के उपदेश में कर्म की प्रधानता कही है। यही श्रमशीलता ही तो भरत का चरित्र रहा है। श्रम की लयकारी ने मानसिक स्थिरता को जन्म दिया। वर्तमान परिदृश्य इन उजालों से मुंह फेरता दिखायी दे रहा है। दीपावली प्रकाश पर्व के नाम से जाना जाता हैं। दीप ज्योति ज्ञान की प्रतीक है।

इस अवसर पर हमें ऐसा संकल्प लेना होगा जो देश की वर्तमान स्थितियों में राष्ट्रीय एकता, अखंडता के लिए सेतु बन सके। मानव मात्र के कल्याण एवं मंगल के लिए सामंजस्यपूर्ण जीवन प्रणाली और प्रगतिशील सामाजिक संस्कृति को स्वीकारना होगा। हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम सभी वर्गो को एक साथ करके पूरे जन मानस के चारों ओर छाए अन्धकार को दूर करें और आलोक पर्व मनाएं तो ‘तमसो मां ज्योतिर्गमय’ सच सिद्ध होगा। श्रमपूर्ण संस्कृति की पुन: प्रतिष्ठा ही भारत को अजेय प्रकाशवानों की राष्ट्र बना पायेगी।

स्वाधीन भारत में राष्ट्र लक्ष्मी का प्रकाश कुछ गिनी-चुनी मुंडेरों पर केंद्रित हो गया है। राष्ट्र लक्ष्मी सीमित तिजोरियों में कैद हो गई है। लक्ष्मी के शुभ प्रकाश को सचमुच उलूक पर बिठा दिया गया है।

राष्ट्र लक्ष्मी कुटियों में और अधिक आलोक बिखेरें। ज्योति से ज्योति जले, दीपोत्सव की आभा असंख्य आलोक पुष्पों में खिले। दीपावली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है, यह तो संकल्प का एक दिन है कि हम आज से भारत देश को अपनी सच्ची निष्ठा और ईमान की मेहनत के दीपों से वर्षपर्यन्त आलोकित करेंगे। इस लोकतंत्र का जब तक अंत:करण से सम्मान नहीं होगा तब तक सच्चे अर्थो में राम का वनवास समाप्त नहीं हो पाएगा।

अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Reviewed by on . दीपावली अर्थात आलोक का विस्तार। पराजित अमावस्या का उच्छवास, घोर अंधकार का पलायन, आलोक सुरसरि का धरती पर अवतरण है दीपावली। आकाश के अनंत नक्षत्र मंडल से धरा की मू दीपावली अर्थात आलोक का विस्तार। पराजित अमावस्या का उच्छवास, घोर अंधकार का पलायन, आलोक सुरसरि का धरती पर अवतरण है दीपावली। आकाश के अनंत नक्षत्र मंडल से धरा की मू Rating:
scroll to top